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छेदाधिकार।
द्वादशांग शास्त्रका या उसके किसी एक भागका पार करते समय, तथा मंत्रपदका जाप करते समय अथवा द्वादशांग शास्त्रका व्याख्यान और स्वाध्याय करते समय केवल प्रथम केवल व्यंजनमें ओर अर्थ-व्यंजन दोनोंमें अत्यंत जल्दी • बोलना, धीरे धीरे बोलना, अतर, पदार्थ, हीन या अधिक बोलना इत्यादि दोष लगा करते हैं। अतः उन दोपोंकी शुद्धिके निमित्त इन सिद्धान्त शास्त्रोंका व्याख्यान और खाध्याय पूरा होने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। तथा इनका समय चकने पर भी यही प्रायश्चित्त होता है ।। २०६ ॥ दिवसे निशि पक्षेऽन्दे चतुर्मासोत्तमार्थके। मासे च द्रागनाभोगे कायोत्सर्गों विशोधनं ॥
अर्थ-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थक (अंत्य ) अतिक्रमणक्रियाओंको जल्दी जल्दी करने पर, तथा अपरिज्ञात दोष विशेपके लगने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है ।। २०७॥ एवमादितनूत्सर्गविधिमुल्लंघते यदा। अप्राप्तश्छेदभूमि च तपोभूमि तदा श्रयेत् ॥
अर्थ-जिस समय जो मुनि ऊपर बताई हुई कायोत्सर्गविधिका उल्लंघन करता है वह उस समय छेद प्रायश्चित्तको भात न होता हुआ उपवासादि तप मायश्चित्तको प्राप्त होता है । .