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१२० प्रायश्चित्त-समुच्चय । नीरसः पुरुमंडश्चाप्याचाम्ल चैकसंस्थितिः । क्षमणं च तपो देयमेकैक द्वयादिमिश्रकं ॥२०९।।
अर्थ-निर्विकृति; :पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान, और उपवास यह पांच प्रकारका तप एक एक, दो दो, तीन तोन, चार चार और पांच पांच भंगोंमें विभक्त कर आलोचना कायोत्सग आदि ओर और प्रायश्चित्तोंके साथ साथ देना चाहिए। भाराय-निस्क्रिति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकासन और उपवास इनके प्रत्येक भंग; द्विसंयोगो भंग, त्रिसंयोगो भंग: चतुः. संयोगो भंग और पंचसंयोगो भंग पहले परिच्छेदमें कह आये. हैं ये सब भंग तप प्रायश्चित्तके भेद हैं अतः कहीं एक एक, कहीं दो दो, कहीं तीन तोन, कहाँ चार चार और कहीं पांच पांच भंगयुक्त तप प्रायश्चित्त बालोचना आदि प्रायश्चित्तों के साथ साथः देना चाहिए।॥ २० ॥
आषण्मासमिदं सर्व सान्तरं च निरन्तरम् । अन्त्यतीर्थे न विद्यत तत ऊर्ध्वं तपोऽधिकम् ॥
अर्थ-यह ऊपर कहा हुआ सर्व प्रकारका तप प्रायश्चित्तः सान्तर और निरन्तर छह महीने तक करना चाहिये, अधिक नहीं। क्योंकि वर्धमान खापीके तोर्थ में छह मासस ऊपर अधिक तप नहीं है। भावार्थ-अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामीके तीर्थमें मनुष्योंकी आयु, काल और शक्ति बहुत न्यूनताको लिए. 3. है अतः उनकी शक्ति के अनुसार हो तप प्रायश्चित्त दोना