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प्रायश्चित्त-समुच्चयं ।
कृत अर्थात् दोष तो लगे पर जाने नहीं गये ऐसे दोपोंकी विशुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों हैं ।। १६२॥ . दिवसे निशि पक्षेऽब्दे चतुर्मासोत्तमार्थके। शैन्यानाभोगकार्येषु पदं यो युक्तयोगिनः ।। आलोचनोपयुक्तोपि विप्रमादो न वेत्त्यघं। अनिगूहितभावश्च विशुद्धिस्तस्य तवयं ॥१९४॥ __ अर्थ--जो साधु अपना आचरण उचित रीतिसे पालन कर रहा है, आलोचना करनेमें तत्पर है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें सावधान है किन्तु अपने दोपोंको नहीं जानता है तथा अपने भावोंको भी नहीं छिपाता है उसके-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्यासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थक प्रतिक्रमणोंको सहसा करनेका और दोष तो लगा पर उसका ज्ञान न हुआ ऐसे अदृष्ट दोष विशेषके करनेका आलोचना और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है ॥ १६३-१६४॥ शय्यामथोपधिं पिंडमादायैषणदूषणं । प्रागविज्ञाय विज्ञाते प्रायश्चित्तं विवेचनं ॥१९५॥ __ अर्थ-वसतिका, उपकरण और आहार, पहले ग्रहण करते समय शंकित प्रादि एषणाके दश दोषोंसे दूषित न जान कर ग्रहण किये गये हों पश्चात उनका ज्ञान होने पर उनको छोड़ । देना ही भार्याश्चत्त है ।। १६५॥ .