________________
प्रायश्चित-समुच्चय । आगे प्रतिक्रयण-मायश्चित्त कब देना चाहिए यह बताते हैंमनसावद्यमापन्नो वाचाऽऽसाय गुरुनथ। उपयुक्तो वधे चापि द्वाग्भवेत्तनिवर्तनं ।।१८८।। ___ अर्थ-जो मनके द्वारा दुश्चितवनरूप दोषको प्राप्त हुआ हो जिसने वचनोंसे आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर
आदिको अवज्ञा की हो और जो कायद्वारा लात थप्पड़ आदि मारनेमें प्रवृत्त हुआ हो उसके लिए इस अपराधका प्रायश्चिच शीघ्र प्रतिक्रमण कर लेना है ॥ १८८॥ तत्क्षणोद्वेगयुक्तस्य पश्चात्तापसुपेयुषः। स्वयमेवात्मसाक्षि स्यात्प्रायश्चित्तं विशोधनं ॥
अर्थ-जिस क्षणमें दोषरूप परिणत हो उसके अनन्तर हो उद्वेग अर्थाद चतुर्गति संसाररूप अंधकूपमें पतनके भयसे युक्त होते हुए तथा पश्चात्ताप करते हुए उस साधुके लिए स्वयं ही आत्मसाक्षीपूर्वक प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है अर्थात वह स्वयं इस प्रकार प्रतिक्रमण करे कि हा ! मुझे धिक्कार है, मैं ने बड़ा बुरा किया, मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥१८॥ वैयावृत्यक्रियाघ्रशे छेदधोवातजूंभणे । दुःस्वप्ने विस्मृते वापि प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमः॥
अर्थ-३यासत्य करना भूलजाने पर, छींक, अधोवायु, (पाद) और जंभाई लेने पर, दुःस्वप्न होने पर तथा साधुओंको