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प्रायश्चित-समुच्चय ।
६-अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, आदि तप करना अथवा उपवास. आचाम्ल; एकमुक्ति आदि तप करना तप प्रायश्चित्त है। ___७-चिर दीक्षत सापराध साधुकी दिवस, पक्ष मास आदि के विभागसे दीक्षाछेद देना छेद प्रायश्चित्त है।
८-अपरिमित अपराध वन जाने पर उस दिनसे लेकर । सम्पूर्ण दीक्षाको नष्ट कर फिर दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है।
-पक्ष, मास आदिको अवधि तक संघसे बाहर कर देना परिहार प्रायश्चित्त है।
१०-सौगत आदि मिथ्यामतोंको प्राप्त होकर स्थित हुए. साधुको पुनः नवीन तौरसे दीक्षा देना श्रद्धान-उपस्थापना पायश्चित्त है ।। १८२॥ । करणीयेषु योगेषु छमस्थत्वेन सन्मुनेः। उपयुक्तस्य दोषेषु शुद्धिरालोचना भवेत् ॥१८॥ ___ अथ अवश्य करने योग्य तपोविशेषमें अथवा मन, वचन
ओर कायकी प्रवृत्तियोंके विषयमें सावधान होते हुए भी छद्मस्थताके कारण दोष लगने पर आलोचना प्रायश्चित्त होता है ।।.. संज्ञोदभ्रान्तविहारादावीर्यासमितिसंयतः। यो गुप्तिष्वप्रमत्तश्च निर्दोषोऽपि च संयमे ॥१८४॥
आलोचनापरीणामो यावदायाति नो गुरुं। .. तावदेव स नो शुद्धः समालोच्य विशुद्धयति ॥