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प्रायश्चित्त-समुच्चय । उपवासादि दोनों तरहके प्रायश्चित्तको करनेमें असमर्थ है वह अनुभय है इसलिये उसे आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, पुरु.. मंडल आदि देना चाहिए ॥ १६६॥ . दीयमानं तपः श्रुत्वा भयादुद्विजते मुहुः। प्रोवृत्तपांडुरक्षः सन् म्लाग्निमेति प्रकंपते ॥
वैमनस्यं समाधत्ते रोगमाप्नोति दुर्बलः । प्राणत्यागं विधत्ते वा श्रामण्याद्वा पलायते ॥१६८ प्रायश्चित्तं न शक्नोति कुर्याच्च व्यावृतिबहु । दुर्बलस्तनुधैर्याभ्यां लब्धिमान् परशक्तिकः ॥ __ अर्थ-जो दिये हुए प्रायश्चित्तको सुनकर भयसे वारवार उद्वेगको प्राप्त हो जाता है, जिसके नेत्र सफेद पड़ जातें हैं अतएव मलीनमुख हो जाता है जिसका शरीर थर थर कांपने. लगता है, जो वैमनस्य धारण कर लेता है; व्याधियुक्त हो जाता है, शरीरमें कृश होकर प्राणत्याग करता है, चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है, शरीर और धैर्यसे दुर्वल है, आहार औषध आदिके लामसे संपन्न है और उपवासादि प्रायश्चित्त धारण करनेमें समर्थ नहीं है किन्तु मुझे वैयाकृत्य प्रायश्चित्त देकर अनुगृहीत करो उपवासादि करनेको असमर्थ हूं इस तरह कहता डुआ वैयावत्य अंगीकार करता है वह परतर पुरुष है ॥१६७६वाः