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प्रायश्चित-समुच्चय णक प्रायश्चित्त है। किसी गृहस्थके चैयालयमें सोते हुए भीतर चौर घुस आवे, आप चुपचाप बैठा रहे, उसके देखते देखते चौर चौरीकर माल ले जाय तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है। माल चुराकर न ले जाय तो कल्याणक प्रायश्चित्त है। तथा दो माससे ऊपर वहीं ठहरा रहे-अर्थात् वर्षाकाल बीत जाने पर भी गृहस्थके मकान पर निवास कर रहा हो उस समय मकानमें अग्नि लग जाय या चौर घुस आवे तो मकानमें आग लग गई, चौर घुस आये? इस प्रकार शब्द करे तो शुचि-निर्दोष हैउसका कोई प्रायश्चित्त नहीं ॥ १०४-१०५॥ पश्चात्कमभयात् सम्यग्भग्नमुत्पतितं स्वयं ।। संस्कुर्वन् प्रासुकैः शुद्धो वर्षाभ्यः पंचकं व्रजेत् ॥
अर्थ-यह अवश्य करना चाहिए इसको पश्चात्कर्म कहते हैं। इस पश्चात्कर्मके भयसे गिर पड़नेसे उत्पन्न हुए घावका स्वयं प्रासुकद्रन्योंसे संस्कार (इलाज) करनेवाला शुद्ध हैप्रायश्चित्तका भागी नहीं है। तथा वर्षाकालके अनन्तर संस्कार करनेवाला कल्याणक प्रायश्चित्तका भागी होता है । १०६ ॥ सम्यग्दृष्टिरिति स्नेह वात्सल्याद्विदधच्छुचिः। . शय्यागारादिकस्यापि वैयावृत्त्ये विजन्तुकैः॥ . अर्थ-"यह सम्यग्दृष्टि है" इस कारण वात्सल्यधर्मके अनुरागवश उस पर स्नेह करनेवाला साधु पवित्र है, प्रायश्चित्तका