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प्रतिसेवाधिकार । अर्थ-अन्यके लिए दिये हुये उपकरणके स्थान पर जाकर यदि उस उपकरणको दूसरा दीक्षित मुनि ग्रहण करे तो वह पंचकल्याणक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है तथा लिंगको विपरीत करनेवाले-वेष वदलनेवाले यतिको मध्य दिनसे ले कर मूल अर्थाव पुनर्दीक्षा नामका प्रायश्चित्त देना चाहिये ॥ १२७॥ . अतिबालमलंवृद्धं दीक्षयन् मासमश्नुते । वसतिं च व्यवच्छिदन् छेदे मूले गणी तपः॥ ___ अर्थ अतिवालको और अतिदको दोता देनेवाला तथा वसति-दी हुई शय्यामें विघ्न पाइनेवाला आचार्य पंचकल्याणक मायश्चित्तको माप्त होता है। तथा छेद ओर मूल इन दो पायश्चित्तोंके प्राप्त होनेपर वह आचार्य उपवासादि तप प्रायश्चित्तको ही प्राप्त होता है ।। १२८॥ एवमादि तपो देयं शेषं चापि यथोचितं। प्रतिसेवासु सर्वासु सम्यगालोच्य सूरिणा।१२९॥
-इस प्रकार तप प्रायश्चित्त देना चाहिये तथा सर्गप्रकारकी प्रतिसेवाओं-दोषाचरणोंके होने पर उनका अच्छी तरह विचार कर प्राचार्य यथोचित शेष प्रायश्चित्त भी देवे॥
इति प्रतिसेवाधिकारो द्वितीयः ॥२॥ १-एवं भावोपयुक्तेषु मासिकं समुदाहत। छेदे मूले च संप्राप्ते तप एव गणेशिनः ।
यह.श्लोक मूल प्रतिमें है।
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