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पुरुषाधिकार । पूर्वदीक्षितको पहले नमस्कार करते हैं और वह पूर्वदीक्षित उन पश्चावदीक्षितोंको वादमें नमस्कार करता है । छेद आदि प्रायश्चित्तके देने पर वह पूर्वदीक्षित उन पश्चातदीक्षितोंको 'पहले नमस्कार करता है और पश्चावदीक्षित पूर्वदीक्षितको पीछे नमस्कार करते हैं। ऐसी दशामें वह मृदु परिणामी विचार करता है कि पश्चावदीक्षित साधुओंने आकर मुझे पहले नमस्कार किया और मैंने वादमें किया तो किया और यदि उनको मैंने पहले नमस्कार किया तो किया इसमें मेरो क्या. हानि है ? इस तरह जो अपने मृदु परिणामों द्वारा छेद प्रायश्चित्तसे अनिच्छा प्रकट नहीं करता है उसको उपवासादि मायश्चित्रा देना चाहिए। छेद और मूल प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए ॥ १४४॥ प्राज्यं तपो न कुर्वाणः किं शुद्धयेच्छेदमूलतः। गुवोंज्ञामात्रतोऽश्रद्दधाने देयं तपस्ततः ॥१४५॥
अर्थ-जो बडे बडे उपवासादि तपश्चरण नहीं करता है वह गुरुको आज्ञासे प्राप्त केवल छेद और मूलसे क्या निर्दोष होगा? इस तरह श्रद्धान न करनेवालेको उपवासादि प्रायश्चित्त देना चहिए ॥ १४५॥ गीतार्थे स्यात्तपः सर्वं स्थापनारहितोऽपरः । छेदो मूलं परीहारेमासश्चाल्पश्रुतेऽपि च ॥१४॥
अर्थ-गीतार्थ दो तरहका है। एक सापेक्ष और दूसरा निर