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प्रायाश्चत्त-समुखय । २१ मियधर्म बहुश्रुत अहेतुक सकृत्कारो अनुजुभाव ११२१२ २२ अप्रियधर्म " " " . "' २.१२१२ २३ प्रियधर्म अबहुश्रुत " .. १२२१२ २४ अप्रियधर्म , , , , २२२१. २५ प्रियधर्म बहुश्रुत सहेतुक असकृल्कारी, १११२२ २६ अप्रियधर्म बहुश्रुत , " " २११२२ २७ प्रिवधर्म अबहुश्रुत " " ॥ १२१२२ २८ अप्रियधर्म , " " " २२१२२. २६ प्रियधर्म बहुश्रुत अहेतुक , , .११२२ . . ३० अप्रियधर्म " " " " २१२२ ३१ प्रियधर्म अवहुश्रु त , " " १२२२२ ३२ अप्रियधर्म ,
" २२२२.२. अब नष्ट विधि कहते हैंसगमाणेहिं विहत्ते सेसं लक्खितु संखिवं रूवं । लक्खिज्जते सुद्धे एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥....
अर्थात् पृष्ट दोषकी संख्या रखकर अपने अपने प्रमाणका भाग दे जो संख्या वच रहे उसे अक्षस्थान समझे, लब्धमें, एक जोड़कर फिर खपमाणका भाग दे जो बाकी बच रहे उसको अक्षस्थान समझे अंगर बाकी कुछ भी न बचे तो लब्ध संख्या में एक न जोडे और अंतका अन्त ग्रहण करे इसतरहका क्रमः सब स्थलोंमें करे। अर्थाद किसीने वचीस उच्चारणाओंमेसे