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प्रायश्चित-समुच्चय । देने योग्य होते हुए भी छेद प्रायश्चित्तको नहीं चाहता है ओर. कहता है कि मैं तो बहुत कालका दीक्षित है मुझे छेद प्रायश्चित्त क्यों दिया जाता है या मेरी दीक्षा क्यों छेदी जाती है। इस तरह चिरदीक्षित होनेका अभिमान करता है वह दीक्षाभिमानी हे ॥१४२॥ तथातपोबली तपोदाने समर्थोऽ हमिति स्मयी। तस्मात्तदोषमोषार्थं विपरीतं तपो भवेत् ॥१४३॥
अर्थ-मैं उपवासादि प्रायश्चित्तके योग्य हूं अन्य प्रायश्चित्त के नहीं, इस तरह जो गर्व करता है वह तपोवलो अर्थात तपोभिमानी है। इसलिए छेद प्रायश्चित्त न चाहने और तप चाहने रूप दोषोंकी शुद्धिके अर्थ विपरीत प्रायश्चित्त देना चाहिए। भावार्थ-छेद प्रायश्चित्त चाहनेवालेको उपवासादि और उपबासादि चाहने वालेको छेद प्रायश्चित देना चाहिए ।।१४३ ।। मृदुश्च्छेदे च मूले च दीयमाने प्रहृष्यति । बंद्यो हि सर्वथा साधुस्तत्तस्मै दीयते तपः ॥१४४॥
अर्थ-जो छेद और मूल प्रायश्चित्त देने पर भी संतोष धारण करता है वह मृदु पुरुष है। वह कहता है कि साधु सर्वथा वंदना करने योग्य हैं अगर मैने साधुओंको पहले नमस्कार किया तो ...र किया यदि वादमें नमस्कार किया तौ नमस्कार किया।
-छेदादि प्रायश्चित्तके पहले, संघके पश्चावदीक्षित साधु