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प्रायश्चित्त-समुच्चय ।
वहां पूर्वोक्त प्रायश्चित्तसे होनं प्रायश्चित्त देना चाहिये तथा जिस देशमें कांजिक, कंगु, कोद्रव आदि रूखा भोजन मिलता हो वहां उपवासके विना आचाम्ल, निर्विकृति, पुरुमंडल, एकभक्त आदि प्रायश्चित्त देने चाहिये ॥ १३६॥
इति श्रीनंदिगुरुविरचिते प्रायश्चित्तसमुच्चये
आहारलाभाधिकारः पञ्चमः ॥५॥
६-पुरुषाधिकार । इति सेवां च कालं च क्षेत्रमौषधिलंभनं।। अनुसृज्य तपो देयं पुमांसं च गणेशिना ॥१४०॥
अर्थ-पूर्वोक्त प्रकारसे प्रतिसेवा, काल, क्षेत्र, आहारलाभ : तथा पुरुषका विचार कर.आचार्य प्रायश्चित्त देवें । भावार्थ-प्रतिसेवा नाम दोषाचरणका है वह दोषाचरण आगादकारणकृत सकृत्कारी सानुवीचो प्रयत्नप्रतिसेवी आदि अनेक प्रकार हैं। उसपर विचार कर प्रायश्चित्त देना चाहिए । इसी तरहं शीतकाल उष्णकाल और वर्षाकालका भी विचार करना चाहिए। अप्रासुक क्षेत्र जो समुद्रके नजदीक हो अथवा और कोई दूसरा क्षेत्र जिसमें त्रस-स्थावर जीव अधिक हों, जहां पर निवास करने से बहुत दोष उत्पन्न होते हों उसका भी विचार करना चाहिए। आहारके लाभ-अलाभको भी विचारना चाहिए । एवं