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प्रायश्चित्त-समुच्चय । पेक्ष । उनमें से सापेक्ष गुरुके निकट जाकर अपनो निन्दा और गर्दा करता हुआ आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग
और तप इन छह मायश्चित्तों द्वारा अपनी शुद्धि करता है । छेद,.. मूल, अनुपस्थापन और पारंचिक ये चार प्रायश्चित्त उसके नहीं होते । निरपेक्ष दश प्रकारके आलोचनादि प्रायश्चित्तोंको गुरुसाक्षी पूर्वक अथवा आत्म-साती पूर्वक करके विशुद्ध होता है। अगोतार्थ, स्थापना प्रायश्चित्तरहित हे अर्थात् उस स्थापना-: छेद, मूल: परिहार ये प्रायश्चित्त नहीं देने चाहिए अथवा स्था. पना नाम परिहारका है वह उसे नहीं देना चाहिए, अवशिष्ट नव प्रकारका प्रायश्चित्त देना चाहिए। तथा अल्पश्रुतको. मास (पंच कल्याणक) प्रायश्चित्त देना चाहिए और परिहार प्रायश्चित्तके योग्य हो जाने पर उसीको छेद और मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ १४६ ॥ देहबल्यवलो धृत्या धृतिवल्यंगदुर्वलः ।। द्वाभ्यामपि वली कश्चित् कश्चिद् द्वितयदुर्बलः ॥ ___ अर्थ-कोई साधु देहमें तो वली होते हैं परंतु धैर्यहीन होते . हैं, कोई शरीरमें दुर्बल होते हैं परंतु धैर्यवाले होते हैं, कोई देह ..
और धैर्य दोनों में बलिष्ठ होते हैं और कोई देह और धैर्य दोनोंमें वलरहित होते हैं ॥ १४७ ॥ इसलिये. १ यह श्लोक टीका पुस्तकमें लेखकके प्रमादसे छूट गया है।