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" प्रतिसेवाधिकार । धिका और निषेधिकान करे तो उसका क्रमसे उपवास, आचाम्ल
और पुरुमंडल प्रायश्चित्त है। भावार्थ-कंदरा पर्वतकी गुफा, गव्हर, मठ, जैसालय आदिसे निकलते समय वहां रहनेवाले नाग यक्ष प्रादिको 'असहि असहि असहि' इन वचनों द्वारा पूछ कर निकलना आसेधिका क्रिया है। तथा प्रवेश करते समय 'निसहि निसहि निसहि' इन बचनोंद्वारा पूछनानिषेधिका क्रिया है। इन क्रियामाको रात्रिके समय उक्त स्थानोंमें प्रवेश करते समय और निकलते समय तोन वार न करे तो उपवास, दो वार न करे तो आचाम्ल और एक वार न करे तो पुरुमंडल प्रायश्चित्तका भागी होता है ।। १२२ ॥ आसेधिकां निषद्यां च मिथ्याकारं निमंत्रणं । इच्छाकारं न यः कुर्यात्तदंडः पुरुमंडलं ॥१२३॥
अर्थ-जो साधु आसेधिका, निपेधिका, मिथ्याकार, नियंत्रण और इच्छाकार न करे तो उसका (न करनेका) पुरुमंडल प्रायश्चित्त है। प्रासेपिका और निषेधिकाका स्वरूप ऊपर कह चुके हैं। अपराध वन जाने पर मेरा अपराध मिथ्या हो' इसे मिथ्याकार कहते हैं। साधर्मी घर्गसे पुस्तक कमंडलु आदि उपकरणोंको विनयपूर्वक पांगना निमंत्रणा है। तथा आचार्य और उनके उपदेशादिकोंमें अनुकूलता रखना इच्छाकार है ॥१३॥