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प्रायश्चित्त-समुच्चय । विभूति है" इस प्रकार अखर्व गर्वके पर्वत पर आरूढ़ हो जाय तो उसे पंचकल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। ११४ ॥ रससातमदे वृष्यरसस्पार्थसेवने। च्युतेऽनात्मवशस्यापि पंचकल्याणमुच्यते ।११५॥ __ अर्थ-मुझे ऐसे ऐसे बढ़िया घो, शक्कर, दूध आदि रस प्राप्त होते हैं, मुझे इस प्रकारका उत्तम सुख है इस प्रकार रसों
और सुख के विषयमें गर्व करनेका तथा इन्द्रियरूप हाथीको यदोन्मत्त करनेवाले पौष्टिक रसों और स्पर्शन इन्द्रियके विषय. कठोर, न4, भारी, लघु आदि पदार्थोंके सेवन करनेका तथा कामको परवश ताके कारण वीर्यपात हो जानेका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त कहा गया है ।। ११५॥ उपसर्गे सगंधादेर्वस्वतांवूललेपने। प्रत्याख्यानस्य भुक्तौ च गुरुमासोऽथ पंचकं ॥ .
अर्थ-सगंध नाम खजनोंका है। आदि शब्दसे राजा, शत्रु प्रभृतिका ग्रहण है। इनके उपसर्गवश वस्त्र पहनने पड़ें, ताम्बूल भक्षण करना पड़े, चंदन, केशर, कपूर आदिका शरीरमें लेपन करना पड़े तथा साग को हुई भिक्षाकाः भोजन करना पड़े तो पंचकल्याणक और कल्याणक प्रायश्चित्त है। भावार्थ:-राजा, श, स्वजन आदिके उपसर्गवश ताम्बूल भन्नका करने विलेपन करने आदिका कल्याणक प्रायश्चित है और ना