________________
४८
प्रायश्चित्त-समुच्चय।
mimmin ऐसे सब तरहके संयपोपकरण (के नाश ) का मायश्चित्त पंचकल्याणक है। तथा अच्छी तरह नहीं रक्खे हुए उत्कृष्ट संयमो'पकरणके नाशका प्रायश्चित्त एक पष्ठ (घेला) मध्यमका एक उपवास और जघन्यका आचाम्ल प्रायश्चित्त है। सिद्धान्त पुस्तकादि उत्कृष्ट संयमोपकरण पिच्छी आदि मध्यम संयमोपकरण और कमंडलु आदि जघन्य संयमोपकरण होते हैं। पुरुषान्न तदर्थं वा स्वल्पान्नं वा समुत्सृजन् । अभोजनमथाचाम्लं पुरुमंडलमश्नुते ॥५६॥
अर्थ-जितनेसे एक पुरुषका पेट भर सकता है उतना आहार छोड़ देनेवाला एक उपवास प्रायश्चित्तको भाप्त होता है। उससे आधा या तिहाई छोड़ देनेवाला आचाम्ल प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है। तथा स्वल्प थोडासा आहार छोड़ देनेवाला पुरुमंडल मायश्चित्तको प्राप्त होता है । ५६ ॥ आगंतुकगृहे सुप्तः सासोदकवन्हिके। .. सागारैरप्यवेलायां शुद्ध एव स चेत्सकृत् ॥५॥ ___ अर्थ-जो स्थान गीला है, जिसके निकट पानी है और
अग्नि जल रही है ऐसे; आनेजानेवाले रास्तागिरोंके लिए वनवाये हुए धर्मशालादि स्थानोंम; गृहस्थोंके साथ, सोनेके असमयमें यदि एक बार कोई साधु सो जाय तो वह शुद्ध ही है-उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है ।।५७॥