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प्रावधित सहाथय । अपने उस दर्पनन्य दोषके घात-विनाश करनेके लिए पंचकल्याणको प्राप्त होता है ।। ६६॥ . . समुत्पन्नक्षणोद्ध्वस्ते मिथ्याकारः कषायके । स्यात्कल्याणमहोरात्रे मासिकं च ततः परं ॥७॥ . अर्थ-कपाय उत्पन्न होकर अनन्तर क्षणमें नष्ट हो जाय तो 'मिछा मे दुकाई' मेरा दुष्कृत मिथ्या हो इस प्रकारका पायश्चित्त है। यदि अनन्तर क्षणमें मिथ्याकार न करे और एक दिन-रात बोत जाय तो उसका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है। इससे ऊपर पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ।। ७०॥ विकथासु पुरुमर्दः स्यादाभीक्षण्ये च पंचकं । तात्पर्ये दृक्छ्तो गर्दा कल्याणं निगते वहिः॥७॥ • अर्थ-एक वार स्त्रीकथा आदि विकथाओंके करनेका पायचित्त पुरुमंडल है। बार बार कर का पंचक है। ललित, लास्य, तांदव आदि नृत्य विशेषोंको उपयोग लगा कर देखनेका और पढन, ऋषभ, गांधार, पंचय, धैवत और निषाद इन छह खरोंको मन लगा कर सुननेका प्रायश्चित्त गर्दाआत्म-निंदा है। तथा वसतिकासे बाहर निकलकर इनके देखने सुननेका प्रायश्चित्त कल्याणक है ॥ ७॥ .
१ उभणेपि काय मिच्छाकारं न तपसणे कुजा । · परमहोरसग तेण परं मासियं वेदो.॥१॥
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