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प्रायश्चित्त-समुच्चय।
उच्छीर्षस्य विधानेऽपि प्रतिलेखस्य हृच्छदे। मस्तकावरणांहेयं कल्याणं वा न दुष्यति ॥७॥ . अर्थ-तकिया लगाने, पिच्छोसे हदय हकने और सिर ढकनेका प्रायश्चित्त कल्याणकं देना चाहिए। यदि व्याधिवश ऐसा कर ले तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है । ७५ ॥ छत्रोपानहसंसेवी शरीरावारकारकः। मार्गधर्माद्धि कल्याणं लभते शुद्ध एव वा ॥७६।। __अर्थ-स्ते चलते समय नंगे पैर चलनेमें असमर्थ होनेके कारण पैरोंमें जूते पहन लेने और धूपके कारण पत्तोंका छत्ता बनाकर शिर पर तान लेने अथवा पत्तोंसे शरीरको ढक लेने वाला कल्याणक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है। यदि व्याधि वश उक्त कर्तव्य करे तो शुद्ध हो है, उसका कोई प्रायश्चित्त, नहीं है ।। ७६ ॥ शयानः प्रथमे यामे काले शुद्धेऽपि पंचकात्। : शुद्धवदथ विसंशुद्धौ लभते पुरुमंडलं ॥७७॥ . . अर्थ-कालशुद्धि होने पर भी यदि शास्त्र पढ़े विना रात्रिके प्रथम पहरमें सो जाय तो कल्याणक प्रायश्चित्तासे शुद्ध होता है. और यदि कालशुद्धि रहित समयमें सो जाय तो पुरुमंडल प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है॥७॥.