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प्रतिसेवाधिकार।
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पंचकेऽप्रतिलेख्यस्य मासः स्यात् सेवने सकृत् । संदंशच्छेदसूच्यादिधारणे शुद्ध एव हि ॥५२॥ ___ अर्थ-पांच प्रकारके अप्रतिलेख्योंके एक वार सेवन करनेका प्रायश्चित्त चकल्याणक है। जो शोधनेमें न आवे उसे अप्रतिलेख्य कहते हैं। उसकी संख्या पांच है। तथा संदेश (संडसी) नखलु, सूई, आदि शब्दसे पत्रवेधनी सलाई आदि चीजें पास रखने पर शुद्ध ही है अर्थात इनके ग्रहण करनेका. कोई प्रायश्चित्त नहीं ॥५२॥ संस्तरस्य निषद्यायास्तदिकाया उपासने । घटीसंपुटपट्टस्य फलकस्य न दूषिका ॥ ५३॥
अर्थ-साथरा, बैठनेकी चटाई, कमंडलू, संपुट (कटोरे या दोनेके आकारकी वस्तु) आसन और फलक (लकड़ीकी फड़ या. तखत) इन चीजोंको काममें लेनेमें कोई दोष नहीं है ॥५३॥ उपधौ विस्मृतेऽप्युच्चैर्मध्यमेऽथ जघन्यके। 'क्षमणं कंजिकाहारं पुरुमंडलमेव च ॥ ५४॥
अर्थ-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य संयमोपकरणके विस्मृत कर देनेका प्रायश्चित्त क्रमसे उपवासप्राचाम्ल और पुरुमंडल है। दुःस्थापितोपधेनाशे सर्वत्रोत्कृष्टमध्यमे। . जघन्ये मासिकं षष्ठं चतुर्थ कंजिकाशनं ॥५५॥
अर्थ-अच्छी तरह नहीं रक्खा गया अतएव नष्ट हो गया.