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प्रायश्चित्त-मुच्चय ।
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विरतेभ्यो गृहस्थेभ्यो न यत्नकथिते हते। वृश्चिकादौ गृहस्थेन क्षमणं पंचकंक्रमात् ॥३९॥
अर्थ-संयतों और असंयतोंके निमित्त यलपूर्वक वा अयत्नपूर्वक कहने पर कोई असंयत्त गृहस्थ विच्छु, विल्लो आदि जन्तुओंको मार दे तो उसका प्रायश्चित्त क्रमसे क्षमण और पंचक है। भावार्थ-यत्नपूर्वक कहने पर मारे उसका प्रायश्चित्त क्षमण और अयत्नपूर्वक कहने पर मारे उसका एक कल्याणक है। पंचक यह कल्याणककी संज्ञा है। वह इसलिए है कि यह कल्याणक पांच दिनमें समाप्त किया जाता है ॥३६॥ विरतेभ्यो गृहस्थेभ्यो न यत्नाभिहिते हते।
सपादौतु गृहस्थेन कल्याणंमासिकं पृथक् ॥४०॥ . अर्थ-विरतों या गृहस्थोंके निमित्त यत्न अथवा प्रयत्न'पूर्वक कहनेपर कोई गृहस्थ सर्प गोनस (गोप) आदि प्राणियोंको मार दे तो उसका प्रायश्चित्त क्रमसे एककल्याणक और पंचकल्याणक है । भावार्थ-यत्नपूर्वक कहने पर मारनेका एक कल्याणक प्रयत्नपूर्वक कहने पर मारनेका पंचकल्याणक है। संयतेभ्यः प्रयत्नेन विषीति कथिते हते।। गृहस्थेनापि संशुद्धो वाक्समित्या युतो थतः॥४१॥
अर्थ-संयतोंके निमित्त प्रयत्नपूर्वक-ऋपिभापामें विपी (सर्प) है यह कहने पर कोई गृहस्थ उसे मार दे तो वह निर्दोष है क्योंकि वह भाषासमितिसे युक्त है। ५१॥