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प्रायश्चित्त-समुच्चय ।
विदध्याद् ग्लानमापृच्छय वैयावृत्यकरोऽथवा। तस्य स्यादेककल्याणं पंचकल्याणमातुरे ॥४५॥ __ अर्थ-अथवा वह वैयाकृत्य करनेवाला रोगोको पूछकर अग्नि जलादे तो उसके लिए एककल्याणक और उस रोगीके लिए पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ॥ ४५ ॥ कारणादामलादीनि सेवमानो न दुष्यति । विलपेश्यादिचानातिशुद्धः कल्याणभागथ ॥४६॥
अर्थ-व्याधिके निमित्त आपले, हरड़ा, बहेरड़ा, आदि चोजोंका सेवन करनेवाला दोपो नहीं है-निर्दोष है और विल्वखंड, आय, करौंदे, वीजपर (विजौरा) आदि प्रासुक चीजोंको जो खाता है वह भी निर्दोप है परन्तु जो व्याधिरहित होते हुए यदि सेवन करता है तो कल्याणकप्रायश्चित्तका मागी
रसधान्यपुलाकं वा पलांडूसरणादिकं । कल्याणमश्नुतेऽनन्वा मासं कोलकादिकं॥४७॥ __ अथ-जो पुरुष च्याधिसहित होता हुआ यथालाम (लाभानुसार) बन करते हुए भी तिक्त, कटुक, कपाय, आम्ल, मधु लवण इन छह रसोंक और शालो, व्रीही अर्थाद भात आदिका परिमाणसे अधिक सेवन करता है अथवा, लसुन सूरण, कंद, गिलोय आदि अनंतकाय चीजों का सेवन करता है