Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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चैत्यवन्दनसूत्र-ललितविस्तरावृत्ति आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दनसूत्र के आधार पर ललितविस्तरा नामक ग्रन्थ का विस्तार से विवेचन किया है। यह कृति बौद्ध-परम्परा के ललितविस्तरा ग्रन्थ की शैली में प्राकृत मिश्रित संस्कृत में लिखी गई है।
यह ग्रन्थ चैत्यवन्दन की प्रक्रिया में उपयोग में आने वाले शक्रस्तव (णमुत्थुणं), चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्ससूत्र), श्रुतस्तव (पुक्खरवरं), सिद्धस्तव (सिद्धाणं-बुद्धाणं), प्रणिधानसूत्र (जय वीयराय), चैत्यस्तव (अरिहंत चेइआण) आदि का विवेचन विशद रूप से करता है। मुख्यतः, यह ग्रन्थ अरिहंत परमात्मा की स्तुतिपरक ही है, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने इसमें अरिहंत परमात्मा के प्रति भाव-विभोर होकर उनके गुणों का विशद रूप में वर्णन किया है तथा अन्य दार्शनिकों की अवधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण युक्तिसंगत समीक्षा भी की है। इसी प्रसंग पर इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम यापनीय-मान्यता के आधार पर स्त्री-मुक्ति का प्रतिपादन किया गया है।
प्रज्ञापना-प्रदेश
इस सूत्र पर टीका प्रारम्भ करने के पूर्व आप्त वचनों की महिमा को प्रदर्शित किया है। पश्चात्, मंगलाचरण की महिमा का विशेष विश्लेषण करते हुए टीका का नामोल्लेख किया है। भव्य और अभव्य शब्दों की व्याख्या करते हुए प्रथम पद के प्रतिपादन में प्रज्ञापना के विषय, उसके कर्तृत्व आदि का विवेचन है। तत्पश्चात् जीव-प्रज्ञापना, अजीव-प्रज्ञापना का प्रासंगिक निरूपण करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों के स्वरूप का विशद वर्णन किया है। द्वितीय पद की व्याख्या में पुनः पृथ्वीकाय, अल्पकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों का वर्णन किया गया है, साथ ही द्वीन्द्रिय आदि के स्थानों का वर्णन भी है। तृतीय पद की व्याख्या में काय आदि अल्प-बहुत्व लेश्या, वेद, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीव का विचार करके लोक सम्बन्धी अल्प-बहुत्व, आयुबन्ध का अल्प-बहुत्व, पुद्गल का अल्प-बहुत्व, द्रव्य का अल्प-बहुत्व अवगाढ़ का अल्प-बहुत्व आदि विषयों पर गहन विचार प्रतिपादित किए गए हैं। चतुर्थ पद में नारकों की स्थिति का विवेचन है तथा पंचम पद में नारक पर्याय, अवगाह, षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विवेचन किया है। षष्ठ और सप्तम पद में नारकों के विरहकाल का वर्णन है। अष्टम पद में संज्ञा के स्वरूप को बताया है। नवम पद में विविध योनियों के स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझाया गया है। दशम पद में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की अपेक्षा से विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है, साथ ही पुरुष, स्त्री और नपुंसक के संकेतों का वर्णन है। बारहवें पद में औदारिक आदि शरीर के सामान्य स्वरूप का वर्णन है
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