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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 39
प्रथम राजा : ऋषभदेव जी : नाभिराजा चौदहवें कुलकर थे अर्थात् नाभिराजा तक कुलकर व्यवस्था प्रचलित थी। भोगभूमि में लोग सहज, सरल स्वभाव के होते थे
और कल्पवृक्षों से अपनी इच्छाएँ पूर्ण करते थे। परस्पर राग-द्वेष, कलह नहीं होता था। लेकिन नाभिराजा के समय भोगभूमि तथा कर्मभूमि का संक्रान्ति काल था, अतः कल्पवृक्षों से अपेक्षित मात्रा से कम सामग्री प्राप्त होने लगी, फलतः अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए लोगों में परस्पर झगड़े होने लगे। प्रारम्भ में हाकार, माकार नीति से समाज में शांति व्यवस्था हो जाती, लेकिन ज्यों-ज्यों सामग्री कम होती गयी समस्याएँ बढ़ने लगी, झगड़े भी बढ़ने लगे। तब युगलिक ऋषभदेवजी के पास गए। उन्होंने कहा, कि अब कर्मभूमि में तुम्हें कठोर परिश्रम करना पड़ेगा और सामाजिक व्यवस्था के लिए एक राजा चुनना होगा, जो सभी समस्याओं को हल करेंगे। नाभिराजा हमारे पूज्य हैं, अतः तुम उनके पास जाकर निवेदन करो। जब लोग उनके पास गए तो नाभिराज ने कहा, कि अब ऋषभदेव ही तुम्हारी समस्याओं का समाधान करेंगे। अतः तुम उन्हीं को राजा बनाओ। तब सभी युगलिकों ने विनिता नगरी को सजाया और प्रथम बार ऋषभदेव जी को राजा बनाकर उनका राज्याभिषेक किया।
भोजन व्यवस्था : भगवान ऋषभदेव के काल में सबसे प्रमुख समस्या भोजन की थी। कल्पवृक्षों की कमी से खाद्य सामग्री कम होने लगी थी। लोग अपनी क्षुधा की समस्या लेकर ऋषभदेव जी के पास पहुँचे। तब ऋषभदेव जी ने उनसे कहा - “अवशिष्ट कल्पवृक्षों के फलों के अतिरिक्त अन्य कन्द, मूल, फल, फूल तथा स्वतः उत्पन्न शालि आदि अन्न का प्रयोग करो।" लोगों ने ऋषभदेव जी के निर्देशों का पालन किया, लेकिन कुछ समय पश्चात् पुनः कच्चे अन्न से पेट दर्द व अपच आदि समस्याएँ होने लगी। तब ऋषभदेव जी ने उन्हें शालियों का छिलका हटाकर उन्हें हाथों से मसल कर खाने की सलाह दी। जब वह भी सुपच न हो सका, तो जल में भिगोकर
और मुट्ठी व बगल में रखकर कर्म करके खाने की सलाह दी। लेकिन अपच की बाधा उससे भी दूर नहीं हुई।
ऋषभदेव जी अतिशय ज्ञानी होने के कारण अग्नि के विषय में जानते थे। वे यह भी जानते थे, कि काल की एकान्त स्निग्धता के कारण उस समय अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती थी, अतः कालान्तर में जब काल की स्निग्धता कुछ कम हुई तब उन्होंने लकड़ियों को घिस कर अग्नि उत्पन्न की तथा लोगों को पाक कला का ज्ञान कराया।
प्रभु ने बताया, कि आग में कच्चे धान्य को पकाकर खाया जाता है। युगलियों ने आग में धान्य को डाला तो वह जल गया। तब वे पुनः ऋषभदेव जी के पास गए
और बोले, कि आग तो स्वयं ही सारा धान्य खा जाती है। तब भगवान ने मिट्टी गीली करके हथेली के कुंभ स्थल पर रखकर उससे पात्र बनाया और बोले, कि ऐसे बर्तन बनाकर धान्य को उन बर्तनों में रखकर आग पर पकाने से वह जलेगा नहीं। इस प्रकार