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कालकाचार्य
लेखक श्रीयुत नथमलजी बिनोरिया, जैन सुन्दर, हरा-भरा, व्यापारीयोंसे परिपूर्ण धारावास नामक नगर था। वहां वज्रसिंह नामका राजा राज्य करता था । उसके एक रानी थी जिसका नाम सुरसन्दरी था । सुरसुन्दरी ने अनुक्रम से एक कुमार और एक कुमारी को जन्म दीया । कुमार का नाम कालक कुमार और कुमारी का नाम सरस्वती था । कालक कुमार सुन्दर एवं पुरुषों के सर्व लक्षणों से अलंकृत था।
जब उसकी अवस्था आठ वर्ष की हुई तब उसके माता-पिताने कालककुमार को एक कलाचार्य के पास भेजा । कालककुमार कुशाग्र बुद्धि का धनि होने से, अल्प समय में ही अनेक कलाओं का अभ्यास कर लिया, जिसमेंसे अश्वपरीक्षा और बाणपरीक्षा में तो इसकी सानी रखनेवाला कोई नहीं था।
एक समय राजा वज्रसिंह के यहां खुरासान देश से बहुत से घोडे भेट में आए । उन घोडों की परीक्षा का कार्य कालककुमार को सौंपा गया । कालककुमार समानवय के पांचसो सेवकों को लेकर बाहर वनमें घोड़े फिराने गया । घोडे फिरा कर कुमार अपना श्रम कम करने के लिए एक आम्रवृक्ष की छाया के नीचे बैठा ।
इसी वनमें गुणाकरसूरि नामके आचार्य अनेक शिष्य परिवार के साथ विराजमान थे । दूर बैठे बैठे आचार्य महाराज के व्याख्यान की ध्वनि कालक-कुमार के कर्ण-गोचर हुई । वह उठा और आचार्य महाराज के समीप जाकर दत्तचित्त होकर उपदेश सुनने लगा । आचार्यदेव ने भी नवीन आगन्तुक राजपुत्र को लक्ष्मी, राज्यवैभव एवं शरीरादि की अनित्यता का उपदेश देकर साधु के वास्तविक सुख एवं पांच महाव्रतों का स्वरूप समझाया।
त्यागीयों का दीया हुआ उपदेश कभी निरर्थक नहीं जाता । यदि वे वाणी द्वारा उपदेश न भी दें तो भी उनके त्याग के परमाणु उपदेश का कार्य करते है। इसी प्रकार आचार्यदेवका उपदेश भी कालक-कुमार के हृदय पटल पर अङ्कित हो गया । व्याख्यान समाप्त होते ही वह आचार्य-महाराज से सविनय प्रार्थना करने लगाः-भगवन् ! आपश्री के
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