________________ અંક 4] ફલધી–પાશ્વનાથજીકે પ્રતિષ્ઠાપક किन्तु इस समय वहां वीर-भवन का कोई खण्डहर चिह्न भी विद्य. मान नहीं है। उसके पश्चात् जब फिरसे गांव वसा, महाजन लोगों की वस्ती हुई, तब भगवान पार्श्वनाथ का बिम्ब प्रगटा, जिनालय निर्मित होकर प्रतिष्ठा हुई / यह घटना वि. सं. 1181 और सं. 1204 के मध्य की है / इस विषय के कुछ प्राचीन उल्लेख यहाँ दिये जाते हैं 1 राजगच्छीय शीलभद्रसूरि के पट्टधर श्री धर्मघोषसरिने सं. 1181 में पार्श्व-चैत्य की प्रतिष्ठा की। निर्माता का नाम श्री श्रीमालवंशज धंधल श्रावक लिखा है। [विविधतीर्थकल्प, पृ. 105-6 ] 2 देवसूरिने धामदेव गणि और सुमतिप्रभगणि को वासक्षेप देकर भेजा। सं. 1199 ( पाठान्तर 1988) फागुण सुदि 10 को बिम्बस्थापन किया। सं. 1204 माघ सुदि 13 शुक्रवार को देवग्रह निर्माण हो जाने के पश्चात् श्री जिनचन्द्रसूरि के वासक्षेप द्वारा कलश व ध्वजारोपण हुआ। श्रावक का नाम पारस लिखा है! [ पुरातन प्रबंन्ध संग्रह, पृ० 31 / 3 वादिदेवसूरि मेडता चौमासा कर फलौधी आए तब पार्श्वबिम्ब प्रगटा / चैत्य निर्माण हो जाने पर सं. 1204 में उनके शिष्य श्री मुनिचन्द्रसूरिने प्रतिष्ठा की / निर्माता पारस श्रावक था। [सोमधर्म कृत उपदेशसप्तति ] 4 सं. 1204 में वादिदेवमूरिने प्रतिष्ठा की प्रसिद्ध है। [ धर्मसागरोपाध्याय कृत तपा पट्टावली ] इन चारों उल्लेखों में 1 धर्मघोषसरि और 2 वादिदेवसरि या उनके शिष्यों के प्रतिष्ठा कराने का निर्देश है। दोनों आचार्य समकालीन थे अतएव किन्होंने प्रतिष्ठा कराई यह विचारणीय है। इनमें प्राचीन प्रमाण श्री जिनप्रभसूरिजी का है। वे विविध तीर्थ कल्प में धर्मघोषसरिजी के प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख करते हैं। इस देश में धर्मघोषसरि विचरे भी हैं, उनके परम्परावाले महात्मा लोग अब भी नागोर में निवास करते हैं। फलौधी पार्श्वनाथ के मन्दिर में सं. 1625 के फागुण वदि 10 गुरुवार, मूल नक्षत्र, सिद्धियोग में प्रतिष्ठित श्री धर्मघोषसरिजीके चरण भी विद्यमान हैं। किन्तु वादिदेवसूरिजी की प्रतिष्ठा का उल्लेख भी कम प्रामाणिक नहीं हैं, अतएव जबतक कोई इनसे अधिक प्राचीन प्रमाण न मिल जाय, निर्णय करना कठिन है। श्री जिनप्रभसूरिजी महाराज आगे चलकर लिखते हैं कि थोडे वर्ष बाद कलिकाल के प्रभावसे अधिष्ठायक देव की अविद्यमानता में यवनों ने उत्पात मचाकर मन्दिर का भंग कर दिया। संघ ने जीर्णोद्धार कराया। गर्भगृह के प्रवेश द्वार की सं. 1221 की लक्ष्मट श्रावक की प्रशस्ति में उत्तानपट कराने का उल्लेख है। इस प्रतिष्ठा का उल्लेख एक प्राचीन गुर्वा Jain Education International For Private & Personal Use Only