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કાલકાચાય
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खूब समझाया परन्तु उसने एक न मानी । कालकाचार्य अपने स्थान पर आए और संघ को एकत्रित कर यह बात संघके समक्ष निवेदन की । संघ भी अनेक प्रकार की भेट लेकर राजा के पास गया और सविनय साध्वी को छोडने की प्रार्थना की; परन्तु राजाने संघ की बात भी न मानी । अब तो कालकाचार्य का क्रोध, सौदामिनी की भांति, रोमरोम में व्याप्त हो गया । उन्होंने संघ के समक्ष प्रतिज्ञा ली कि, ' गर्दभिल्ल और उसकी राजधानी को उखाड़ कर न फेंकदूं तो मैं कालकाचार्य नहीं" ।
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कालकाचार्य एक त्यागी विरक्त साधु थे; तथापि एक दुष्ट अत्याचारी राजाको उसके पापका प्रायश्चित्त देना और किसी भी प्रयत्न द्वारा प्रजा पर जो अत्याचार हो रहा है उसे दूर करना इस त्यागी वैरागी साधुने अपना कर्त्तव्य समझा ।
उपर्युक्त प्रतिज्ञा करने के पश्चादू भी कालकाचार्यने राजाको उसके कर्त्तव्य का स्मरण कराने के हेतु एक और प्रयत्न किया वह यह कि - ये एक पागल साधु के सदृश्य बकने लगे और इधर उधर गांव में फिरने लगे । आचार्य का यह पागलपन राजाके कानतक पहुँचा परन्तु क्रूर राजा का हृदय न पसीजा ।
आखिर अपनी प्रतिज्ञा पालन के हेतु कालकाचार्य को यह देश छोडना पडा । इन्होंने अपने गच्छ का भार एक गीतार्थ साधु को सोंप आप सिंधु नदी के तीर 'पार्श्वकुल' नामक देश में गए, इस देशके समस्त राजा "साखी" के नाम से प्रसिद्ध थे ।
आचार्यश्री विहार करते करते एक गांव की सीमा में पहुँचे। गांवके बाहर मैदान में कितनेक राजकुमार गेंद खेल रहे थे। खेलते खेलते उनकी किमती गेंद कुवेमें गिर पडी । समस्त राजकुमार गेंद निकालने की चिन्तामें कुए के इर्द गिर्द बैठ गए। आचार्य महाराजने पूछा "कुमारों ! तुम सब कुए में क्या देख रहे हो ? " कुमारोंने अपने प्यारे गेंदकी बात आचार्यश्री से निवेदन को । आचार्य महाराजने कहा तुम घर से धनुषबाण ले आओ। एक युवक घर से धनुष-बाण ले आया । आचार्य - महाराज ने गीले गोबर से लिपटी हुई जलती घास डालकर धनुष्यको खींच एक बाण फेंक गेंद को बांधा, फिर दूसरे बाण से पहला बाण बींधा, तीसरे से दूसरा बाण, इस प्रकार परंपरा से बाणों को बींधते हुए कुए से गेंद को बाहर निकाला। अपनी प्यारी गेंद मिलते ही समस्त कुमार आचार्य - श्री की विद्याकी भूरि भूरि प्रसंशा करते हुए खुशी खुशी घर पहुँचे । घर जाकर अपने पिताको समस्त घटना कह सुनाई । फैलते फैलते यह बात बादशाह के कान तक पहुँची । (बादशाह अर्थात् वहां का 'साही' अथवा 'साखी') राजाने अपने पुत्रोंको भेज कालकाचार्य को सम्मान पूर्वक अपने
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