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12 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
आराधना का उल्लेख नहीं है, यद्यपि जिनेश्वरसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि की आराधनाकुलक नामक ८५ गाथाओं की एक कृति का उल्लेख मिलता है। हमें ऐसा लगता है कि गुरुभ्राता होने के कारण भ्रान्तिवश यह कृति जिनचन्द्रसूरि की मान ली गई है। यह भी सम्भव है कि संवेगरंगशाला की विषयवस्तु आराधना से सम्बन्धित होने के कारण उसे ही 'आराधना' कहा गया हो या उनकी आराधना नामक कृति ही संवेगरंगशाला का कोई संक्षिप्त रूप हो। जहाँ तक पार्श्वनाथस्तोत्र का प्रश्न है, जिनरत्नकोश में जिनचन्द्रसूरिकृत पार्श्वनाथस्तोत्र का कोई उल्लेख नहीं मिला है। जिनरत्नकोश में हमें जिनदत्त के पार्श्वनाथस्तोत्र और जिनभद्र के पार्श्वनाथस्तोत्र का उल्लेख मिलता है। सम्भावना यह है कि जिनदत्तसूरि जिनचन्द्रसूरि की परम्परा के हैं, अतः उनके द्वारा रचित पार्श्वनाथस्तोत्र को कहीं जिनचन्द्रसूरिकृत नहीं मान लिया गया हो। इसी प्रकार अभयदेवसूरिकृत पार्श्वनाथस्तोत्र का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु जिनचन्द्रसूरिकृत पार्श्वनाथस्तोत्र का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। सम्भावना यही लगती है कि जिनदत्तसूरि के पार्श्वनाथस्तोत्र को ही जिनचन्द्रसूरि की कृति मान लिया गया है, फिर भी जब तक कृति उपलब्ध नहीं होती है और उसका विश्लेषण नहीं किया जाता है, तब तक यह निर्णय करना कठिन है कि जिनचन्द्रसूरिकृत पार्श्वनाथस्तोत्र कौन-सा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनचन्द्रसूरि प्रथम के सम्बन्ध में हमें कुछ छुटपुट उल्लेखों के अतिरिक्त प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती। वस्तुतः, प्राचीन आचार्यों में यह प्रवृत्ति रही है कि वे अपने सम्बन्ध में कुछ भी नही बताते हैं, अतः जिनचन्द्रसूरि के जीवनवृत्त के सन्दर्भ में अधिक कुछ कह पाना सम्भव नही है। मात्र संवेगरंगशाला के अध्ययन से ही हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जिनचन्द्रसूरि प्रथम अपने युग के एक महान् आचार्य थे तथा उन्होंने इस महत्वपूर्ण कृति का प्रणयन कर इसे जैन साहित्य के भण्डार को समर्पित किया है। जिनचन्द्रसूरि का सत्ताकाल :
जहाँ तक जिनचन्द्रसूरि के काल का प्रश्न है, उनकी संवेगरंगशाला नाम की कृति के आधार पर ही उनके काल का निर्धारण किया जा सकता है। संवेगरंगशाला एक वृहत् और वैराग्यरस से परिपूर्ण कृति है। ऐसा लगता है कि यह कृति उनकी प्रौढ़-अवस्था की रचना होगी। यही कारण है कि अपनी वृद्धावस्था के कारण वे इस कृति का संशोधन और परिमार्जन नहीं कर सके। उनके गुरुभ्राता एवं शिष्यों ने इसका संशोधन किया। यदि संवेगरंगशाला की कृति के समय उनकी आयु ६० वर्ष के लगभग भी मानें, तो उनका जन्म विक्रम संवत्
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