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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 11
व्याख्या प्रस्तुत की थी, उसी के आधार पर उनके शिष्य ने ३०० श्लोक-परिमाण 'श्रावकदिनचर्या' नामक ग्रन्थ की रचना की थी । वर्तमान में यह कृति अनुपलब्ध है, केवल खरतरगच्छ-पट्टावली से इसकी सूचना प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त पंचपरमेष्ठिनमस्कारकुलक, क्षपकशिक्षाप्रकरण, जीवविभक्ति, आराधना, पार्श्वस्तोत्र, आदि कृतियाँ भी उनके द्वारा रचित मानी जाती हैं।
जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित पंचनमस्कारफलकुलक नामक कृति ११८ गाथाओं में रचित है। हमारी जानकारी में यह कृति अभी तक अप्रकाशित है। जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स पायधुनि मुम्बई द्वारा जो जैनग्रन्थावली प्रकाशित हुई है, उसमें इस कृति का उल्लेख है। जिनरत्नकोश की सूचना के अनुसार यह कृति लिमड़ी के शास्त्र-भण्डार में उपलब्ध है और उसका क्रमांक १२८८ दिया गया है। जिनचन्द्रसूरि की दूसरी कृति 'क्षपकशिक्षाप्रकरण' का उल्लेख भी हमें
जैन-ग्रन्थावली में मिलता है। इसके अतिरिक्त इस कृति का उल्लेख जिनरत्नकोश में भी हुआ है, जिनरत्नकोश के अनुसार यह कृति १२३ गाथाओं में निबद्ध है। जिनरत्नकोश की सूचना के अनुसार यह कृति डेला उपाश्रय शास्त्र-भण्डार अहमदाबाद में उपलब्ध है। इसका क्रमांक २०६ दिया गया है। इसी प्रकार पाटन केटलाग में भी पृष्ठ ३५ पर इसी कृति का उल्लेख हुआ है। हमारी जानकारी में यह कृति अभी तक अप्रकाशित ही है।
जीवविभक्तिप्रकरण भी आचार्य जिनचन्द्रगणि की एक लघु कृति है। जिनरत्नकोश में इसकी गाथा संख्या २५ उल्लेखित है तथा इसका रचनाकाल ११८६ उल्लेखित है। इसका उल्लेख पिटरसन की रिपोर्ट में भी मिलता है। जिनरत्नकोश में भी इसका उल्लेख है। जिनरत्नकोश के अनुसार पाटन केटलाग में पृष्ठ ३६२ पर इस कृति को वि.स. ११८६ की बताया गया है, किन्तु यह संवत् कृति की रचना का है, अथवा उसके लेखन-काल का है, यह निर्णय कर पाना कठिन है; क्योंकि पिटरसन की रिपोर्ट में इसका लेखन संवत् १२१५ दिया है। यदि हम संवेगरंगशाला का रचनाकाल ११२५ मानते हैं, तब दो बातें हमें मानना होंगी। प्रथम यह कि संवेगरंगशाला को आचार्य जिनचन्द्रसूरि की युवावस्था की कृति मानना होगा, किन्तु कृति के विषय की गम्भीरता को देखकर ऐसा लगता है कि यह कृति उनके यौवन की नहीं हो सकती। यदि जीवविभक्तिप्रकरण का रचनाकाल ११८६ या १२१३ मानते हैं तो या तो यह मानना होगा कि यह कृति प्रथम जिनचन्द्रसूरि की न होकर दूसरे जिनचन्द्रसूरि की कृति है; या फिर जिनरत्नकोश में इसके जो संवत् उल्लेखित हैं; वे इसके रचना-संवत् न होकर कृति के प्रतिलिपि के ही संवत् होना चाहिए। जिनरत्नकोश में जिनचन्द्रसूरिरचित
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