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जैन धर्म में अहिंसा "हिंस्र"', “हिलाशनिहरसा"२, “हिंस्र", तथा “हिंसते"४ आदि शब्द मिलते हैं। किन्तु इन शब्दों से हिंसा अथवा अहिंसा के नैतिक रूप पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। कारण, इन शब्दों के द्वारा अधिक जगहों पर राक्षसों को मारने के लिए प्रार्थनाएं की गई हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि वे राक्षस कौन थे ? सामान्यतः राक्षस का अर्थ दुष्ट या दुराचारी होता है । अतः दुराचारी या दुष्ट जिससे समाज या राष्ट्र की हानि हो उसके विनाश की भावना कुछ हद तक अहिंसा के अन्तर्गत आ सकती है। किन्तु हो सकता है कि "राक्षस" शब्द से उन आदिवासी अनार्यों को सम्बोधित किया जाता रहा हो जिन्हें आर्य लोग नीच तथा निकृष्ट समझकर अपने से दूर रखना चाहते थे । या राक्षस कहे जाने वाले वही लोग तो नहीं थे जिनके वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों में "राक्षसगण'' के रूप में मिलते हैं । इस विषय में एक निश्चित जानकारी प्रस्तुत करना स्वयं एक शोध का विषय बन जाता है। अतः इन शब्दों को निश्चित रूप से न हिंसा का और न अहिंसा का ही समर्थक कहा जा सकता है।
मैत्रायणी संहिता में अग्नि से प्रार्थना की गई है
"हे प्रज्वलित लपटों से जाज्वल्यमान अग्नि ! अपनी देह से मेरी प्रजा को कष्ट मत दो अथवा मत मारो" (मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः)।" १. उभोमयाविन्नुप धेहि दंष्ट्रा हिंस्र: शिशानोऽवरं परं च ।
ऋ० वे० १०.८७.३. उतान्तरिक्षे परि याहि राज अम्भैःसंधेह्यभि यातुधानान् ।।
प्र० के० ८. ३. ३. २. अग्ने त्वचं यातुधानस्य भिन्धि हिंस्राशनिहरसा हन्त्वेनम् । प्र पर्वाणिजातवेद शृणीहि क्रव्यात्क्रविष्णुविचिनोतु वृक्णम ।
ऋ०० १०. ८७. ५. ३. तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा रक्ष यज्ञं पाज्वं वसुभ्यः प्रणय प्रचेतः । हिस्र रक्षास्याभि शोशुचानं मा त्वा दमनयातुधाना नृचक्षः ।।
ऋ० वे० १०.८७. ६. ४. यो प्रस्य स्याद वशाभोगो अन्यामिच्छेत तहि सः ।
हिस्ते प्रदत्ता पुरुषं याचितां च न दित्सति ॥ अ० वे० १२. ४. १३. ५. प्रेदग्ने ज्योतिष्मा न्याहि शिवेभिरर्चिभिष्ट्वम् ।
बृहड्निर्भानुभिर्भासंन्मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः ॥ मैत्रायणी संहिता, २.७.१०.
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