Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 23
________________ जैन धर्म में श्रहिंसा सिन्धु- संस्कृति के संबंध को देखते हुए उन्होंने दोनों के लिए ई० पूर्व ३२५० समय निर्धारित किया है । " वेदकालीन मानव प्रकृति नटी की गोद में पलने के कारण उदार हृदय वाला था तथा उसका मस्तिष्क उलझनों से परे था । सामान्य तौर से वह दूध, दही, घी, खीर, चावल, रोटी, फल आदि खाता था । साथ ही उन बैलों, भेड़ों और बकरों के मांस भी उसकी भोज्य सामग्रियों में शामिल थे, जो यज्ञों में बलिस्वरूप मारे जाते थे । यदा-कदा दवा आदि के रूप में वह कुत्ते का मांस भी काम में लाता था । गाय को वह अवध्य ४ तथा बहुत अच्छी सम्पत्ति मानता था, यद्यपि यज्ञ में वैसी गायों की बलि भी वह देता था जो बाँझ होती थीं, और पात्र बनाने तथा गाड़ी आदि बाँधने के काम में गोचर्म का प्रयोग करता था ।" वह शिकार खेलने का आदी था अतः सूअर, भैंसा, सिंह आदि को मारने या पकड़ने में आनन्द का अनुभव करता था । उसके सामने मानव एवं पशु से परे आनन्द या कष्ट देनेवाली कोई शक्ति थी तो वह ४ 1. That the age of the Rigveda is not later than that of the Indus civilization of about 3250 B. C. has been already explained on the basis of the links of connection between the two cultures. Ancient India (Radha Kumud Mookerji), p. 52. 2. Meat also formed a part of dietary. The flesh of the ox, the sheep and the goat was normally eaten after being roasted on spits or cooked in earthenware or metal pots. Probably meat was eaten, as a rule, only on the occasions of sacrifice though such occasions were by no means rare, the domestic and the grand sacrifices being the order of the day. Vedic Age (Ed. R. C. Majumdar ), p. 393. Flesh was eaten but only of animals that were sacrificed, viz., sheep and goat. Ancient India (R. K. Mookerji), p. 67. ३. श्रवर्त्या शुन मन्त्रारिण पेचे न देवेषु विविदे मडितारम् । अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वा जभार ||१३ ४. हिन्दी ऋग्वेद- रामगोविन्द त्रिवेदी, पृष्ठ १०२०, मंत्र २. ५. हिन्दी ऋग्वेद- रामगोविन्द त्रिवेदी, पृष्ठ ७३४, मंत्र २६; भश्विदय, जो मधु पूर्णं चर्म - पात्र मध्यस्थान में रखा हुआ है, उससे मधुपान करो । हि० ऋ०, पृ० ६०६, मं० १६; हि० ऋ०, पृ० ११९३, मंत्र १६; पृ० १२५०, मंत्र २२, Jain Education International ऋ० वे० ४. १८. १३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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