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कर दिया है ! इससे इन पद्यों के परिवर्तन की निरर्थकता स्पष्ट है और साथ ही सोमसेनजी की योग्यता का भी कुछ परिचय मिल जाता है ।
(ग) परिवर्तित और अपरिवर्तित मन्त्र ।
इस ग्रन्थ के तीसरे अध्याय में, एक स्थान पर, दशदिक्पालों को प्रसन्न करने के मन्त्र देते हुए, लिखा है:---- ततोऽपि मुकुलितकरकुड्मलः सन् “ ॐनमाईते भगवते श्री शांतिनाथाय शांतिकराय सर्वविघ्नप्रणाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्व परकृत क्षुद्रोपद्रवविनाशनाय मम सर्वशान्तिर्भवतु" इत्युच्चार्य
इसके बाद-'पूर्वस्यां दिशि इन्द्रः प्रसीदतु, आग्रेयां दिशि अग्निः प्रसीदतु, दक्षिणस्यां दिशि यमः प्रसीदतु' इत्यादि रूप से वे प्रसन्नता सम्पादन कराने वाले दसों मन्त्र दिये हैं । ये सब मन्त्र वही हैं जो ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार में भी दिये हुए हैं, सिर्फ 'उत्तरस्यां दिशि कुवेरःप्रसीदतु' नामक मन्त्र में कुवेरः की जगह यहाँ ‘यक्षः' पद का परिवर्तन पाया जाता है । परन्तु इन मन्त्रों से पहले 'ततोऽपिमुकुलितकरकुड्मलः सन्' और 'इत्युच्चार्य के मध्य का जो मंत्र पाठ है वह ब्रह्मसूरि त्रिवर्णाचार में निम्न प्रकार से दिया हुआ है। - ॐ नमोर्हते श्रीशांतिनाथाय शांतिकराय सर्व शांतिर्भपतु स्वाहा । *
* इस मंत्र में जिन विशेषण पदों को बढ़ाकर इसे ऊपर का रूप दिया गया है उसे सोमसेनजी के उस विशेष कथन का एक नमूना समझना चाहिये जिसकी सूचना उन्होंने अध्याय के अन्त में निम्न पद्य द्वारा की है
श्री ब्रह्मसूरि द्विजवंश रत्नं श्री जैनमार्ग प्रतिबुद्धतत्वः ।
वाचतु तस्यैव विलोक्य शाखं कृतं विशेषान्मुनिसोमसेनः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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