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[११] चतुर्थे दिवसे मायात्मातोसर्गतः पुरा । पूर्वाद्वेषटिकापट्कं गोसर्ग इति भाषितः ॥ १३-२२ ।। शुद्धाभतुश्चतुर्थेऽहिभोजने रन्धनेऽपिवा । देवपूजा गुरूपास्तिहोमसेवासु पंचमे ॥ १३-२३ ॥
ये पद्य ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार के जिन पद्यों को परिवर्तित करके बनाये गये हैं वे क्रमशः इस प्रकार हैं
अन्तःशुद्धिस्तु जीवानां भवेत्कालादिलन्धितः । एषामुख्याषिसंस्कारे बाह्यशुद्धिरपेक्षते ॥७॥ रजस्वलाचतुर्थेऽन्हि मायाद्रोसर्गतः परं । पूर्वाह घटिकाषट्कं गोसर्ग इति भाषितः । ८-१३॥ तस्मिन्नदनि योग्या स्यादुदपया गृहकर्मणि । देवपूजा गुरूपास्तिहोमसेवासु पंचमे ॥८-१४॥
इन पद्यों का परिवर्तित पद्यों के साथ मुकाबला करने से यह सहज ही में मालूम हो जाता है कि पहले पद्य में जो परिवर्तन किया गया है उससे कोई अर्थ-भेद नहीं होता, बल्कि साहित्य की दृष्टि से वह कुछ घटिया जरूर हो गया है। मालूम नहीं फिर इस पद्य को बदलने का क्यों परिश्रम किया गया, जब कि इससे पहला 'सुखं. वहन्ति' नाम का पय ज्यों का त्यों उठाकर रक्खा गया था ! इसे भी उमी तरह पर उठाकर रख सकते थे। शेष दोनों पद्यों के उत्तरार्ध ज्यों के त्यों हैं, सिर्फ पूर्वार्ध बदले गये हैं और उनकी यह तबदीली बहुत कुछ भद्दी जान पड़ती है। दूसरे पद्य की तबदीली ने तो कुछ विरोध भी उपस्थित कर दिया है-ब्रह्मसूरि ने चौथे दिन रजखला के स्नान का समय पूर्वाह की छहधड़ी के बाद कुछ दिन चदे रक्खा था; परन्तु ब्रह्मसूरि के अनुसार कथन की प्रतिज्ञा करने वाले सोमसेनजी ने, अपनी इस तबदीली के द्वारा गोसर्ग की उक्त बह घड़ी से पहले रात्रि में ही उसका विधान
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