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विष्णुधर्मसूत्र शताब्दी के उपरान्त भी इसकी ओर संकेत किया है। यह धर्मसूत्र गौतम, आपस्तम्ब एवं बौधायन से बाद का है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यदि इसे ईसापूर्व ३००-१०० के मध्य में रखा जाय तो असंगत न होगा।
याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका में विश्वरूप ने वृद्ध-वसिष्ठ के मत दिये हैं (याज्ञ० १.१९)। मिताक्षरा (याज्ञ० २.९१) ने वृद्ध वसिष्ठ से जयपत्र की परिभाषा को उद्धृत किया है। इसी प्रकार स्मृतिचन्द्रिका ने वृद्धवसिष्ठ का हवाला 'आह्निक' एवं 'श्राद्ध' के विषय में दिया है। भट्टोजिदीक्षित ने अपने चतुर्विंशतिमत (पृ० १२) की टीका में वृद्ध-वसिष्ठ से उद्धरण लिया है। इन बातों से पता चलता है कि वृद्ध-वसिष्ठ नाम के कोई प्राचीन धर्माचार्य थे। मिताक्षरा ने एक बृहद्-वसिष्ठ की भी चर्चा की है। स्मृतिचन्द्रिका (३, पृ० ३००) ने ज्योतिर्वसिष्ठ से उद्धरण लिये हैं। बौधायनधर्मसूत्र के टीकाकार गोविन्दस्वामी से पता चलता है (२.२.५) कि वसिष्ठधर्मसूत्र के टीकाकार यज्ञस्वामी थे।
१०. विष्णुधर्मसूत्र इस धर्मसूत्र का प्रकाशन भारत में कई बार हुआ है। जीवानन्द द्वारा 'धर्मशास्त्रसंग्रह' में (१८७६ ई०), बंगाल एशियाटिक सोसाइटी द्वारा (१८८१ ई०), वैजयन्ती टीका के कुछ उद्धरणों के साथ (डा० जाली द्वारा सम्पादित) श्री एम० एन० दत्त द्वारा (१९०९)। इस सूत्र में १०० अध्याय हैं, किन्तु सूत्र छोटे-छोटे नहीं हैं। प्रथम एवं अन्तिम दो अध्याय पूर्णतया पद्यबद्ध हैं, किन्तु अन्य अध्याय या तो गद्य में या गद्य-पद्य मिश्रित रूप में हैं। वैजयन्ती टीका के अनुसार कठ नामक यजुर्वेदीय शाखा से इसका सम्बन्ध है। 'श्राद्धकल्प' उर्फ 'पितृभक्तितरंगिणी' में वाचस्पति ने कहा है कि विष्णुधर्मसूत्र कठ शाखा के विद्यार्थियों के लिए है, क्योंकि विष्णु उस शाखा के सूत्रकार हैं। विद्यमान मनुस्मृति से इसका एक विचित्र सम्बन्ध है। चरणव्यूह के अनुसार कठ एवं चारायणीय यजुर्वेदीय चरकशाखा के १२ उपविभागों में दो विभाग हैं।
विष्णुधर्मसूत्र की विषय-सूची निम्नलिखित है-(१) कूर्म द्वारा समुद्र से पृथिवी को उठाना, कश्यप के यहाँ इसलिए जाना कि उनके उपरान्त पृथिवी को कौन संभालेगा, तब विष्णु के पास जाना और उनका कहना कि जो वर्गाश्रम धर्म का परिपालन करेंगे वे ही पृथिवी को धारण करेंगे, उस पर पृथिवी नें परम देवता को उनके कर्तव्य बताने के लिए प्रेरित किया; (२) चारों वर्ण एवं उनके पर्म; (३) राजधर्म; (४) कार्षापण एवं अन्य छोटे बटखरे; (५) कतिपय अपराधों के लिए दण्ड; (६) महाजन (ऋण देनेवाला) एवं उधार लेनेवाला, ब्याज-दर, बन्धक; (७) तीन प्रकार के लेखपत्र या लेखप्रमाण; (८) साक्षियाँ ; (९) दिव्य (परीक्षा) के बारे में सामान्य नियम; (१०-१४) तुला, अग्नि, जल, विष, पूत जल (कोश) नामक दिव्य (परीक्षा); (१५) बारहों प्रकार के पुत्र, वसीयत का निषेध, पुत्र-प्रशंसा; (१६) मिश्रित विवाह से उत्पन्न पुत्र तथा मिश्रित जातियाँ ; (१७) बटवारा, संयुक्त परिवार तथा पुत्रहीन की वसीयत के नियम, पुनर्मिलन, स्त्रीधन; (१८) विभिन्न जातियों वाली पलियों से उत्पन्न पुत्रों में बँटवारा; (१९) शव को ले जाना, मृत्यु पर अशौच, ब्राह्मण-प्रशंसा; (२०) चारों युगों, मन्वन्तर, कल्प, महाकल्प की अवधि, मरनेवाले के लिए अधिक न रोने का उपदेश; (२१) विलाप के बाद क्रिया-संस्कार, मासिक श्राद्ध, सपिण्डीकरण; (२२) सपिण्डों के लिए अशौच की अवधि, विलाप के लिए नियम, जन्म पर अशौच, कतिपय व्यक्तियों एवं पदार्थों के स्पर्श से उत्पन्न अशौच के नियम ; (२३) अपने शरीर एवं अन्य पदार्थों का पवित्रीकरण; (२४) विवाह, विवाह-प्रकार, अन्तर्विवाह, विवाह के लिए अभिभावक ; (२५) स्त्री-धर्म ; (२६) विभिन्न जातियों की पत्नियों में प्रमुखता; (२७) संस्कार, गर्भाधान आदि; (२८) ब्रह्मचारी के नियम; (२९) आचार्य-स्तुति; (३०) वेदाध्ययन-काल एवं छुट्टियाँ ; (३१) पिता, माता एवं आचार्य अधिक
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