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आपको जाने बिना मैंने जो दुःख पाये हे जिनेश ! आप में सब जानते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव पर्यायों में मैं अनेक बार भव/जन्म धारण करता रहा और मरता रहा हूँ ।
अब समय आने पर हे प्रभु, मैंने आपके दर्शन पाये हैं और प्रसन्न हूँ। सारे विकल्पजाल से मुक्त होकर मेरा मन शान्त हुआ है और दुःखों से मुक्त करनेवाले अपने आत्मरस का आस्वादन कर रहा हूँ ।
इसलिए अब ऐसा कुछ कीजिए कि कभी आपके चरणों का साथ न छूटे । भव सागर से पार लगाना आपका विरद है, गुण हैं। मेरी इस मान्यता की कभी हानि न होने दीजिए।
आत्मा का अहित करनेवाले विषय और कषाय हैं। उनमें मेरी कोई रुचि जागृत न हो। ऐसा कोजिए कि मैं सदा अपने स्वभाव में ही लीन रहूँ / मैं सदैव अपने ही आधीन रहूँ।
हे ईश, मेरे और अन्य कुछ भी चाह नहीं है। हे मुनीश, मुझे रत्नत्रय दीजिए । मैं कार्य हूँ जिसके लिए आप ही कारण हैं। मेरे मोहरूपी ज्वर का शमन कर मुझे शान्ति प्रदान कीजिए, मेरा कल्याण कीजिए ।
इस तपन का नाश करने के लिए, चन्द्रमा-सी शीतलता प्रदान करने के लिए आप कुशलदाता हैं। जैसे अमृतपान से रोग मिट जाता है, उसीप्रकार आपके गुणों के चिंतवन से / अनुभव से भव-भव की श्रृंखला टूट जाती हैं।
तीन लोक व तीन काल में आपके सिवा सुख - दाता अन्य कोई नहीं है । यह मैंने अपने हृदय में निश्चित कर लिया है। आप ही इस दुःख समुद्र से पार ले जाने हेतु एकमात्र जहाज हो ।
जब गणधर भी आपके गुणों की गिनती नहीं कर सके, आपके गुणों का पार नहीं पा सके, दौलतराम कहते हैं कि तब मैं अल्पमति उनका कैसे कथन कर सकता हूँ ! मैं मन, वचन, काय को सँभालकर, साधकर आपको नमन करता हूँ ।
अरि
मोहनीयकर्म: रज - दर्शनावरण-ज्ञानावरणकर्म; रहस अंतरायकर्म सूर = सूर्यः अमेय = अपरिणाम गद रोग; छेव = पार।
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दौलत भजन सौरभ