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हम तो कबहुँ न निज घर आये ।
परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ॥ हम तो. ॥
परपद निजपद मानि मगन हवै, परपरनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये ॥ १ ॥ हम तो. ॥
नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । अमल अखण्ड अतुल अविनाशी, आतमगुन नहिं गाये ॥ २ ॥ हम तो. ॥ यह बहु भूल भई हमरी फिर कहा काज पछताये । 'दौल' तजी अजहूं विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये ॥ ३ ॥ हम तो. ॥
हम अपने घर में कभी नहीं आए अर्थात् आत्मारूपी घर में आकर नहीं ठहरे, उसे नहीं संभाला। दूसरों के घर घूमते हुए बहुत काल बीत गया और अनेक नाम रखकर उन नामों से जाने-पहचाने जाते रहे अर्थात् बार-बार पुद्गल देह धारण कर, अनेक नाम से अनेक पर्यायों में जाने जाते रहे।
पर - पद अर्थात् देह को ही अपना समझकर उसमें ही मगन होते रहे और उसकी ही विभिन्न स्थितियों में लिपटते रहे। शुद्ध, ज्ञानवान सुख के पिंड अपने चैतन्यस्वरूप की कभी भावना नहीं की, चिंतन नहीं किया, विचार नहीं किया। पर्याय अर्थात् क्षणिक स्थिति को स्थिर मानकर चारों गति मनुष्य, तिर्यच, देव व नारकों को ही अपना जानता रहा। यह आत्मा मलरहित खंडरहित अखंड हैं, तुलनारहित अतुलनीय है, विनाशरहित है, इन गुणों को नहीं पहचाना, न इनका चिंतन किया।
अमल है,
अविनाशी
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यह हमारी बहुत बड़ी भूल थी पर अब पछताने से कोई कार्य सिद्ध होनेवाला नहीं है। दौलतराम कहते हैं कि सत्गुरु ने जो उपदेश/ वचन सुनाये हैं उनको सुनकर अभी से, आज से इन विषय-भोगों को छोड़ दे।
दौलत भजन सौरभ