Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 191
________________ ( ११४) हे हितवांछक प्रानी रे, कर यह रीति सयानी ॥टेक॥ श्रीजिनचरन चितार धार गुन, परम विराग विज्ञानी॥ हरन भयामय स्वपरदयामय, सरधौ वृक्ष सुखदानी। दुविध उपाधि बाध शिवसाधक, सुगुरु भजौ गुणथानी॥१॥ मोह-तिमिर-हर मिहर भजो श्रुत, स्यात्पद जास निशानी। सप्ततत्त्व नव अर्थ विचारह, जो वरनै जिनवानी॥२॥ निज पर भिन्न पिछान मान पुनि, होहु आप सरधानी। जो इनको विशोष जानन सो, नायकता मुनि मानी॥३॥ फिर व्रत समिति गुपति सजि अरु तजि, प्रवृति शुभास्त्रवदानी। शुद्ध स्वरूपाचरन लीन है, 'दौल' वरौ शिवरानी॥४॥ हे अपना हित चाहनेवाले, तू इस रीति का पालन कर श्री जिनेन्द्र के चरणों का चितवन कर और उनके गुणों को धारण कर - यह हो श्रेष्ठ व युक्तियुक्त रीति है। भयरूपी रोग को दूर करनेवाले, स्व और अन्य पर दया करनेवाले, सुख को देनेवाले धर्म पर श्रद्धान कर । हे मोक्ष के साधक, पाप और पुण्य दोनों ही मोक्षमार्ग में बाधक हैं । वे सत्गुरु ही गुण के भण्डार हैं, स्थान हैं, उनका ही भजन कर । ___ मोहरूपी अंधकार को हरनेवाले उस शास्त्ररूपी सूर्य का भजन कर जिसका चिह्न स्याद्वाद शैली है । सात तत्व और नव पदार्थ, जिनका श्री जिनवानी में वर्णन है, का चितवन करो। स्व और पर दोनों को अलग-अलग पहचानकर फिर अपने स्वरूप का श्रद्धान करो। जो इनका विशेष ज्ञान प्राप्त करते हैं उनकी ज्ञायकता को मुनिजन मानते हैं। दौलत भजन सौरभ

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