Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 202
________________ ( १२३) मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै! भनवन अपत दुग्नी लखि गाको, सुगमदयाल उचारै ।मोहिड़ा.॥ विषय भुजंगम संग न छोड़त, जो अनन्तभव मारै। ज्ञान विराग पियूष न पीवत, जो भवव्याधि विडारै।।१॥मोहिड़ा.॥ जाके संग दुरै अपने गुन, शिवपद अन्तर पारे । ता तनको अपनाय आप चिन,-मूरतको न निहारै।। २॥ मोहिड़ा.॥ सुत दारा धन काज साज अघ, आपन काज विगारै। करत आपको अहित आपकर, ले कृपान जल दारै॥३॥मोहिड़ा॥ सही निगोद नरककी वेदन, वे दिन नाहिं चितारें। 'दौल' गई सो गई अबहू नर, धर दृग-चरन सम्हारे॥ ४॥ मोहिड़ा. ॥ संसार में भ्रमण करते हुए दुःखी जीव को देखकर दयालु सुगुरु हितकारी उपदेश देते हुए समझाते हैं - हे मोही जीव ! तू तेरे हित की सीख को, उपदेश को क्यों नहीं मानता ! विषय-भोगरूपी भयानक नाग का तू साथ नहीं छोड़ता, जो अनन्त काल तक तुझे भव-भ्रमण कराकर मारता है, पौड़ा पहुँचाता है। संसार से वैराग्य और ज्ञानरूपी अमृत का तू पान क्यों नहीं करता जो तुझे भव-भ्रमण की व्याधि से छुड़ा ले, छुटकारा दिला दे। जिसके साथ रहने से अपने सभी गुण दूर हो जाते हैं, छुप जाते हैं और मुक्ति अर्थात् मोक्ष उतना ही दूर हो जाता है, ऐसे तन को तो तू अपना रहा है और अपने चिदानन्द चिन्मयस्वरूप की ओर नहीं देखता ! पुत्र, स्त्री, धन, उनके कार्य व सज्जा, पाप ये सब अपना कार्य बिगाड़ते हैं; इस प्रकार तू स्वयं ही अपने आपका अहित करता है और हाथ में तलवार लेकर जल/पानी को काटने के समान निरर्थक श्रम करता है। दौलत भजन सौरभ १८०

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