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(११८) जम आन अचानक दावैगा। टेक॥ छिनछिन कटत घटत थित ज्यौं जल, अंजुलिको झर जावेगा। जन्म तालतरुते पर जियफल, कोलग बीच रहावैगा। क्यों न विचार करै नर आखिर, मरन महीमें आवैगा ।।१॥ सोवत मृत जागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावैगा। जैसैं कोऊ छिपै सदासौं, कबहूं अवशि पलावैगा॥२॥ कहूं कबहूं कैसें हू कोऊ, अंतकसे न बचावैगा। सम्यकज्ञानपियूष पिये सौं, 'दौल' अमरपद पावैगा॥३।।
हे प्राणी/मानव ! यमराज अचानक आकर दबोच लेगा 1 जैसे अंजुलि के जल में से बूंद-बूंद झरकर सारा जल समाप्त हो जाता है वैसे ही एक-एक क्षण के बीतते हुए इस जीवन की स्थिति घटती जाती है।
हे जीव ! ताड़ के वृक्ष पर जन्मे हुए फल की भाँति तेरी (अर्थात् इस जीव की) स्थिति है। विचार कर कि वह ऊपर से गिरते हुए बीच में कितना समय व्यतीत करेगा ! अन्तत: भूमि पर आकर गिरेगा ही। उसी प्रकार तेरा मरण निश्चित है, तू क्यों नहीं इस प्रकार विचार करता !
जो सोता है वह मरे हुए के समान है, जो जागता है वह जीता है। जीवित है। वह इस चलायमान श्वास को स्थिर कर लेगा अर्थात समाधि धारण कर लेगा तो भी देह को त्यागना ही होगा। हमेशा छुपा रहनेवाला भी आखिर कब तक छुपा रहेगा, कभी तो प्रकट होगा ही होगा।
कोई भी, कहीं भी, कब भी और कैसे भी मृत्यु से बचा नहीं सकेगा। दौलतराम कहते हैं कि सम्यक्ज्ञानरूपी अमृत के पीने से ही तू अमरपद अर्थात् मोक्ष-पद पावेगा।
पलावेगा - प्रकट होगा, भागेगा।
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दौलत भजन सौरभ