Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 198
________________ (१२०) निपट अयाना, ते आपा नहीं जाना, नाहक भरम भुलाना बे॥टेक॥ पीय अनादि मोहमद मोहयो, परपदमें निज माना बे॥ चेतन चिह्न भिन्न जड़तासों ज्ञानदरशरस-साना बे। तनमें छिप्यो लिप्यो न तदपि ज्यों, जलमें कजदल माना बे॥२॥ सकलभाव निज निज परनतिमय, कोई न होय बिराना बे। तू दुखिया परकृत्य मानि ज्यौं, नभताड़न-श्रम ठाना बे॥३॥ अजगनमें हरि भूल अपनपो, भयो दीन हैराना बे। 'दौल' सुगुरुधुनि सुनि निजमें निज, पाय लयो सुखथाना बे॥४॥ हे निपट अज्ञानी जीव ! तूने अपने स्वरूप को नहीं जाना इसलिए व्यर्थ में हो भ्रम के कारण तू अपने आपको भूला हुआ है।भुला रहा है । अनादिकाल से मोहासगी शाब को पीका मा . तो में बह रहा है और पर में/अन्य में अर्थात् पुद्गल देह में ही अपनापन मान रहा है। तू चेतन है, जड़ता से - पुद्गल से भिन्न है । तू दर्शन और ज्ञान स्वभाववाला है, उनसे युक्त है। तू देह में रहता है, देह में छिपा हुआ है, परन्तु तू देहस्वरूप नहीं है। जैसे जल में कमलपत्र अलग रहता है, वैसे ही तू देह में लिप्त नहीं है, देह से भिन्न है। __सारे भावों की परिणति अपनी-अपनी है। कोई भी भाव अन्य द्रव्य का नहीं होता। किंतु तू पर की क्रिया को अपना समझकर आकाश को पीटने के समान निरर्थक ही परिश्रम कर रहा है। बकरियों के झंड में रहता हुआ सिंह अपने आपको, अपने स्वभाव को भूलकर बकरी के समान दीन होकर हैरान हो रहा है । दौलतराम कहते हैं जिसने सतगुरु की ध्वनि सुनकर निज-स्वरूप में ही निज को पा लिया, उन्हें सुख-स्थान की प्राप्ति हुई है। नभ-ताड़न = आकाश को पीटा नहीं जा सकता, पर कोई लकड़ी धुमाकर नभ/आकाश को पौटना चाहे तो यह उसका व्यर्थ का श्रम होगा। अज-गन = बकरियों का समूह । १७६ दौलत भजन सौरभ

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