Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 199
________________ (१२१) निजहितकारज करना भाई! निजहित कारज करना॥टेक॥ जनममरन दुख पावत जाते, सो विधिबंध कतरना। ज्ञानदरस अर राग फरस रस, निजपर चिह्न भ्रमरना! संधिभेद बुधिछैनीतें कर, तिज गहि दर परिहामा।। मि. परिग्रही अपराधी शंक, त्यागी अभय विचरना। त्यौं परचाह बंध दुखदायक, त्यागत सबसुख भरना ।। २॥ निज.॥ जो भवभ्रमन न चाहे तो अब, सुगुरुसीख उर धरना! 'दौलत' स्वरस सुधारस चाखो, ज्यौं विनस भवभरना॥ ३॥ निज.॥ अरे भाई । तू वह कार्य कर जो तेरे निज के हित का हो। जिससे तुझे जन्म... मरण के दुःख प्राप्त होते हैं, मिलते हैं उस कर्मबंध को, उस श्रृंखला को काट दो, कतर दो। दर्शन-ज्ञान निज के और राग-स्पर्श-रस आदि पर के/पुद्गल के चिह्न हैं, इसका निरंतर समरण रखना। दोनों में मिलावट प्रतीत होती है, उसे ज्ञानरूपी छैनी से भेदकर निज को ग्रहण करो और पर को, पुद्गल को छोड़ दो। जो परिग्रही है, जो पर का ग्राहक है, चोर है, वह अपराधी की भाँति सदैव शंकित रहता है और जो पर का त्याग कर देता है वह निर्भय होकर विचरण करता है। इसी प्रकार पर की कामना, तृष्णा कर्म बंध करनेवाली व दु:ख को देनेवाली है, पर को छोड़ने से निज सुख की प्राप्ति होती है। जो तू संसार भ्रमण से छूटना चाहता है तो सत्गुरु के उपदेश को हृदय में धारण करना। दौलतराम कहते हैं कि अपनी ज्ञानसुधारस का, ज्ञानरूपी अमृत का पान करो जिससे संसार में मृत्यु का विनाश होवे अर्थात् जन्म-मरण से छुटकारा मिले। दौलत भजन सौरभ १७७

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