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. 94) चेतन कौन अनीति गही रे, न मानें सुगुरु कही रे॥ जिन विषयनवश बहु दुख पायो, तिनसौं प्रीति ठही रे॥ चेतन.॥ चिन्मय है देहादि जड़नसौं, तो मति पागि रही रे। सम्यग्दर्शनज्ञान भाव निज, तिनकौं गहत नहीं रे॥१॥चेतन.॥ जिनवृष पाय विहाय रागरुष, निजहित हेत यही रे। 'दौलत' जिन यह सीख धरी अ, तिन शिव सहज लही रे ॥२॥चेतन.॥
हे चेतन! तू यह कैसा अनीतिपूर्ण आचरण कर रहा है कि सत्तारु ने जो सीख दी हैं, जो तेरे हित की बात कही है, जो उपदेश दिया है तू उसको नहीं मानता ! जिन इंद्रिय-विषयों के कारण तूने बहुत दुखों का उपार्जन किया है, उनमें ही तू प्रीति लगा रहा है - उनसे अपनापन जोड़ रहा है!
तू चैतन्य स्वरूप होकर भी पुद्गगल जड़ वस्तुओं में अपनापन जोड़ रहा है, उनको अपना मान रहा है, उनमें मन लगा रहा है । तेरे अपने भाव, स्व-भाव तो सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान हैं, जिन्हें तू स्वीकार नहीं कर रहा है।
जैनधर्म पाकर तू राग-द्वेष को छोड़ दे, तेरा हित इसी में है । दौलतराम कहते हैं कि जिनने इस सीख को, उपदेश को हृदय में धारण किया, स्वीकार किया उनको मुक्ति का मार्ग सहज हो गया अर्थात् वे सुगमता से मुक्त हो गए।
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दौलत भजन सौरभ