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जोरी ॥ टेक ॥
झोरी ।
छांडि दे या बुधि भोरी, वृथा तनसे रति यह पर है न रहे थिर पोषत, सकल कुमल की यासाँ ममता कर अनादितैं, बंधो कर्मकी डोरी, सह्रै दुःख जलधि हिलोरी ॥ १ ॥ छांडि ॥ बरजोरी । संपति तोरी,
सदा बिलसौ शिवगोरी ॥ २ ॥ छांडि ॥
यह जड़ है तू चेतन यौं ही अपनावत सम्यक्दर्शन ज्ञान चरण निधि, ये हैं
सुखिया भये सदीव जीव जिन, यासौं ममता तोरी। 'दौल' सीख यह लीजे पीजे, ज्ञानपियूष कटोरी, मिटै परचाह कठोरी ॥ ३ ॥ छांडि ॥
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हे जीव ! तू बिना किसी अर्थ के बिना किसी प्रयोजन के इस तन से देह से ममत्व करता है, नाहक अपनापन जोड़ता है। यह भोली बुद्धि छोड़ दे ।
यह देह पर है, पुदुगल है। इसको पोषण करते-करते भी यह स्थिर नहीं रह पाती - नष्ट हो जाती हैं। यह मैल से भरी झोली हैं। इसमें ममता कर अर्थात् अपनापन मानकर अनादिकाल से कर्म-डोर से अपने को बाँधता रहा है और दुःख के सागर में लहरों के साथ डूबता उतराता रहा है।
यह जड़ है, चेतन नहीं हैं। तू निरर्थक ही इसका पक्षपाती होकर इसको अपना मान रहा है । तेरी संपत्ति तो रत्नत्रय - सम्यक्दर्शन- ज्ञान- चारित्र ही है । उस मोक्षरूपी लक्ष्मी को सदैव भोगो ।
जिनने इस तन से ममत्व तोड़ दिया / हटा दिया वे जीव सदा के लिए सुखी हो गये । दौलतराम शिक्षा देते हैं, सलाह देते हैं कि तू ज्ञानरूपी अमृत की कटोरी पी जिससे तेरी पर को वाहनेवाली ये कठोर कामनाएँ- अभिलाषाएँ सब मिट जाएँ ।
दौलत भजन सौरभ
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