Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 166
________________ (१८) आनाकानी ।। छांडत. । छांडत क्यों नहिँ रे, हे नर ! रीति अयानी । बारबार सिख देते सुगुरु यह, तू दे विषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुखसुखजाति न जानी । शर्म चहै न लहै शठ ज्यौं घृतहेत विलोवत पानी ॥ १ ॥ छांडत. । तन धन सदन स्वजनजन तुझसौं, ये परजाय विरानी । इन परिनमनविनशउपजन सों, तैं दुःख सुख कर मानी ॥ २ ॥ छखंडत. ॥ इस अज्ञानतैं चिरदुख पाये, तिनकी अकथ कहानी । ताको तज दूग - ज्ञान- चरन भज, निजपरनति शिवदानी ॥ ३ ॥ छांडत. ॥ यह दुर्लभ नर-भव सुसंग लहि, तत्त्व लखावन वानी । 'दौल' न कर अब पर में ममता, धर समता सुखदानी ॥ ४ ॥ छांडत. ।। हे नर ! तू अपनी ज्ञानरहित क्रियाओं को क्यों नहीं छोड़ता ! तुझे बार-बार सत्गुरु समझाते हैं, पर तू उसे मानता ही नहीं है । तू न इंद्रिय विषयों को छोड़ता न ज्ञान और तप की आराधना करता । तू दु:ख व सुख की जाति को नहीं जानता, उनको नहीं पहचानता । तू शान्ति चाहता हैं, पर उसके लिए तू कुछ उपाय नहीं करता, तू उस मूर्ख की भाँति क्रिया करता है जो पानी को बिलोकर घृत (घी) निकालने की कामना करता है। ये देह, धन, घर-बार, कुटुंबी- परिवारजन सब तुझसे भिन्न हैं, भिन्न पर्याय के हैं : इनके उत्पाद - व्यय में, जन्म-मरण में, संयोग-वियोग में तू सुख और दुःख की मान्यता करता है। इस अज्ञान के कारण तू दीर्घकाल से दुःख पा रहा है, जिनकी कथा कही नहीं जा सकती। उन सबको अब छोड़; रत्नत्रय ( दर्शन - ज्ञान- चारित्र) की आराधना कर। अपने स्वभाव में रमण ही मोक्ष को देनेवाला है । यह मनुष्य पर्याय, यह सत्संग और तत्व का स्वरूप बतानेवाली यह जिनवाणी, इनका यह संयोग अत्यंत दुर्लभ हैं । दौलतराम कहते हैं कि यह जानकर अब भी अन्य में, पर में ममत्व - बुद्धि छोड़, मोह मत कर। समता धारण कर, ग्रह ही सुख को देनेवाला मंत्र हैं । १४४ दौलत भजन सौरभ

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