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(९६) जानत क्यौं नहिं रे, हे नर आतमज्ञानी ॥टेक ।। रागदोष पुद्गलकी संपति, निहचै शुद्धनिशानी । जानत.। जाय नरकपशुनरसुरगतिमें, यह परजाय विरानी। सिद्धसरूप सदा अविनाशी, मानत विरले प्रानी ॥१॥ जानत. । कियौ न काहू हरै न कोई, गुरु-शिख कौन कहानी। जनममरनमलरहित विमल है, कीचबिना जिमि पानी ॥ २॥ जानत.॥ सार पदारथ है तिहुं जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी। 'दौलत' सो घटमाहिं विराजे, लखि हूजे शिवथानी ॥३॥जानत. ।।
हे मनुष्य ! यह आत्मा ज्ञानस्वरूप हैं, ज्ञानी हैं । तू यह बात क्यों नहीं जानता है ! निश्चय से इसकी (आत्मा की) निशानी यह है कि यह शुद्ध है, राग-द्वेष पुद्गल के आश्रित हैं। ये (राग-द्वेष) तेरो नहीं, पुद्गल की संपत्ति है।
यह आत्मा नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव चारों पर्यायों/गतियों में जाता है, ये सब पर्यायें परायी हैं, अनजान हैं। परन्तु कुछ विवेकी, बुद्धिमान - जो बिरले ही होते हैं - यह जानते हैं कि यह आत्मा सिद्धस्वरूप है, कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।
कोई किसी का कुछ नहीं करता, किसी का कुछ नहीं छीनता, कौन गुरु है और कौन शिष्य - यह एक कहानी मात्र है। जैसे कीचड़ के बिना पानी निर्मल होता है उसी भाँति जन्म-मरण के मेल से रहित आत्मा ही विमल है, निर्मल
तीन लोक में यह आत्मा ही साररूप पदार्थ है जो न क्रोधी है और न मानी। दौलतराम कहते हैं कि वह आत्मा सदैव ही हृदय में विराजमान है, जिसने उसे देखा, जाना व पहिचाना वह ही मोक्ष को प्राप्त हो जाता है, मोक्ष के निवास को पाता है। विरागी - बेगाना, पराया, अनजान ।
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दौलत भजन सौरभ