________________
( १०२ )
ज्ञानी जीव निवार भरमतम वस्तुस्वरूप विचारत ऐसें ॥ टेक ॥
i
सुत तिय बंधु धनादि प्रगट पर, ये मुझतें हैं भिन्नप्रदेश । इनकी परनति है इन आश्रित, जो इन भाव परनवें वैसे ।। १ ।। ज्ञानी. ॥ देह अचेतन चेतन मैं इन परनति होय एकसी कैसें ।
पूलगलन स्वभाव धेरै तन, मैं अज अचल अमल नभ जैसें ॥ २ ॥ ज्ञानी ।। पर परिनमन न इष्ट अनिष्ट न वृथा रागरुष द्वंद्व भयेरौं । नसै ज्ञान निज फसैं बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेसैं ॥ ३ ॥ ज्ञानी ॥ विषयचाहदवदाह नसै नहिं विन निज सुधासिंधुमें पैसें । अब जिनवैन सुने श्रवननतें, मिटे विभाव करूं विधि तैसें ॥ ४ ॥ ज्ञानी ॥ ऐसो अवसर कठिन पाय अब, निजहितहेत विलम्ब करे । पछताओ बहु होय सयाने चेतन 'दौल' छुटो भव भैंसें ॥ ५ ॥ ज्ञानी. ॥
7
ज्ञानी जीव अपने सभी भ्रमरूपी अंधकार का, अनिश्चितता का नाशकर इस प्रकार वस्तु स्वरूप का चिंतवन करते हैं कि पुत्र, स्त्री, बंधुजन, धन-संपत्ति आदि सब स्पष्टतः मुझसे भिन्न हैं, इनके व मेरे प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं। उनका परिणमन उनका है और उनके ही आश्रित है, जैसे उनके भाव हैं उनका परिणमन भी वैसा ही है, उसी प्रकार का है। परन्तु मुझसे सर्वथा भिन्न है ।
यह देह जड़- पुद्गल है और मैं चेतन; इनकी दोनों की परिणति एक-सी कैसे हो सकती है ? यह देह पुद्गल - जड़ है अतः इसका स्वभाव पुद्गल के अनुरूप अर्थात् गलना व पुरना ही हैं, जब कि मैं आकाश की भाँति अज अजन्मा, शक्तिवाला, स्थिर, मलरहित व निर्मल हूँ ।
पर का परिणमन मेरे लिए न किसी भाँति इष्ट है और न अनिष्ट ! अपितु रागद्वेष के द्वन्द्व के कारण वह सर्वथा निरर्थक है जिसमें फँसने पर कर्मबंध होता
दौलत भजन सौरभ
!
१५२
+
|
I
I
I
1