Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 185
________________ अरे जिया, जग धोखेकी हाली। टेक॥ झूठा उद्यम लोक करत है, जिसमें निशदिन घाटी॥१॥अरे।। जान बूझके अन्ध बने हैं, आंखन बांधी पाटी ॥२॥अरे.॥ निकल जायंगे प्राण छिनकमें, पड़ी रहेगी माटी॥३॥अरे.॥ 'दौलतराम' समझ मन अपने, दिलकी खोल कपार्टी॥४॥अरे.॥ अरे जिया - यह जगत धोखे को टाटी है, धोखे से निर्मित दीवार/आड़ है। इस जगत में लोग लौकिक श्रम करते हैं जो सर्वथा झूठा है, मिथ्या है, वह आत्मकल्याण हेतु उपयोगी नहीं है। उसमें सदैव, दिन-प्रतिदिन घाटा ही घाटा है अर्थात् हानि है। सब इस तथ्य को जानकर भी आँखों के आगे पट्टी बाँधने के समान अंधे बने हुए हैं अर्थात् जगत के धोखे को नहीं समझते । इस शरीर से प्राण एक क्षण में निकल जाएँगे, छूट जाएँगे, फिर यह मृत शरीर माटी की तरहः पड़ा रह जाएगा। दौलतराम कहते हैं कि हे मन ! तू यह सब-कुछ समझकर मन के दरवाजे खोल और कर्मबंधन से मुक्त हो जा। दौलत भजन सौरभ

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