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तोहि समझायो सौ सौ बार, जिया तोहि समझायो । देख सुगुरुकी परहित में रति, हितउपदेश विषय सेय सुख पाये नि तिनसीं स्वपदविसार रच्यौ परपदमें, मदरत ज्यौं
सुनायो ॥ तोहि ॥
लपटायो ।
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बोरायो ॥ १ ॥ तोहि ॥
तन धन स्वजन नहीं हैं तेरे, नाहक नेह लगायो । क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत जो नित
संतसुहायो ॥ २ ॥ तोहि ।।
अबहू समझ कठिन यह नरभव, जिन वृष बिना गमायो ! ते विलख मनि डार उदधिमें, 'दौलत' को पछतायो ॥ ३ ॥ तोहि ॥
अरे जिया ! तुझे सौ-सौ बार समझाया अर्थात् अनेक बार समझाया। देखसुगुरु ने करुणाकर अन्य जनों का हित करने की रुचि के कारण हितकारी उपदेश दिया है।
अरे मन ! तू सर्प के विष के समान घातक इंद्रिय विषयों का सेवन कर उन्हीं में बार बार लिपटा रहा जिससे बहुत दुःख पाए हैं अर्थात् इन्द्रिय-विषयों में ही सुख मानकर तू रमता रहा और अपने चिदानंदस्वरूप को भूलकर अन्य / परपद में शराबी की भाँति मत्त होकर डूबा रहा।
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यह तन, यह कुटुम्बीजन तेरे नहीं हैं, तू इनमें व्यर्थ ही प्रीति अपनापन बढ़ा रहा है। इस भ्रम को अब क्यों नहीं छोड़ता और संतजनों को सुहावना लगनेवाले समतारूपी अमृत का पान क्यों नहीं करता !
दौलतराम कहते हैं कि अब तो समझ कि मणि को समुद्र में फेंकने के बाद जैसे उसका मिलना दुर्लभ हो जाता है और फिर बिलख बिलख पछताना पड़ता है, उसी भाँति यह मनुष्य-भव पाकर तू इसे जैनधर्म के बिना व्यर्थ ही गँवा रहा है, यह मनुष्य-भव मिलना फिर अत्यन्त कठिन है।
बोरायो = डूब रहा है; जिन वृष - जैनधर्मः मद-रत मद में डूबा हुआ ।
दौलत भजन सौरभ
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