Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 179
________________ (१०५) आपा नहिं जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ॥ टेक ॥ देहाश्रित करि क्रिया आपको मानत शिवमगचारी रे || १ | आपा. ।। निजनिवेदविन घोर परीसह, विफल कही जिन सारी रे ॥ २ ॥ आपा. ॥ शिव चाहे तो द्विविधकर्म कर निजघरनति न्यारी रे ॥ ३ ॥ आपा ॥ 'दौलत' जिन निजभाव पिछान्यौ, तिन भवविपति विदारी रे || ४ || आपा. ॥ , हे मनुष्य ! तू अपने आपको नहीं जान सका, अपना स्वरूप नहीं पहचान सका तो तू कैसा ज्ञानी है ? देह से सम्बन्धित क्रियायें करके तू अपने आपको मोक्षमार्ग का राही उस पर चलनेवाला मानता रहा अर्थात् देह के विषयों में रत रहकर भी तू अपने को साधु- वैरागी मानता रहा है ! अपने स्वरूप की पहचान, आराधन, भक्ति, बहुमान के बिना घोर दुःख सहन करना, परीषह सहना, जिनेन्द्रदेव कहते हैं कि ये तेरे किसी अर्थ के नहीं, विफल, फलरहित या उल्टा फल देनेवाले हैं। सब हे मनुष्य ! यदि तुझे मोक्ष की चाह है तो निश्चय और व्यवहार से भेद-ज्ञान को समझ अर्थात् अपने व पर के क्रिया-कलापों को भिन्न-भिन्न, न्यारा-न्यारा, अलग-अलग जान व समझ । दौलतराम कहते हैं कि जिन्होंने अपने स्वभाव को पहचान लिया है उन्होंने ही संसारभ्रमण की विपत्ति को दूर किया है, उससे छूट गये हैं। निज निवेद - अपनी आराधना करना; द्विविध धर्म निश्चय और व्यवहार धर्म । दौलत भजन सौरभ 17 १५७

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