Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 180
________________ (१०६) शिवपुर की डगर समरससौं भरी, सो विषय विरसरचि चिरविसरी।। टेक ॥ सम्यकदरश बोध-व्रतमय भव, दुखदावानल-मेघझरी॥ ताहि न पाय तपाय देह बहु, जनममरन करि विपति भरी। काल पाय जिनधुनि सुनि में जन, तह लहूं सोई धन्य धरी॥१॥ ते जन धनि या मांहि चरत नित, तिन कीरति सुरपति उचरी॥ विषयचाह भवराह त्याग अब, 'दौल' हरो रजरहसअरी॥२॥ मोक्ष का मार्ग समता रस से भरपूर है जिसमें विषय से भरा नीरस मार्ग सदा के लिए विसर जाता है, विस्मृत हो जाता है । यह मोक्षमार्ग सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व व्रत से युक्त है जो संसार के दुःखरूपी दावानल के ऊपर मेघ की झड़ी के समान है। इस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय मोक्षमार्ग के अभाव में अब तक अनेक बार जनम-मरण किये, इस देह को भाँति-भाँति के तप करके तपाया और कष्ट सहे, अब काललब्धि के सुयोग से जिनेन्द्र की ध्वनि को सुनकर मैं धन्य हो गया। यह घड़ी धन्य है, शुभ है। जिन्होंने इस मार्ग के अनुरूप आचरण किया वे सभी जन धन्य हैं। उनकी कीर्ति का बखान, यशगान इन्द्र आदि ने अपने मुख से किया है। दौलतराम कहते हैं कि संसार-भ्रमण की विषयों की चाहरूपी इस राह को छोड़कर अरि अर्थात् मोहनीय कर्म; रज अर्थात् ज्ञानावरण- दर्शनावरण कर्म तथा रहस अर्थात् अंतराय कर्म - इस चतुष्टय का अब सर्वथा नाश करो। अरि = शत्रु अर्थात् मोहनीय कर्म; रज = ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म; रहस = अन्तराय कर्म। १५८ दौलत भजन सौरभ

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