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(९५) मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानी॥टेक ॥ भयौ अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि बिसरानी। दुखी अनादि कुबोध अवत, फिर तिनसौं रति ठानी। ज्ञानसुधा निजभाव न चाख्यौं, परपरनति मति सानी॥१॥ भव असारता लखै न क्यों जहँ, नृप है कृमि विट-थानी। सघन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरिसे प्रानी॥२॥ देह एह गद-गेह नेह इस, हैं बहु विपति निशानी। जड़ मलीन छिनछीन करमकृत,-बन्धन शिवसुखहानी॥३।। चाहज्वलन ईंधन-विधि-वन-घन, आकुलता कुलखानी। ज्ञान-सुधा-सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतुदानी॥४॥ यौं लखि भव-तन-भोग विरचि करि, निजहित सुन जिनवानी। तज रुषराग 'दौल' अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी॥५॥
हे मनुष्य ! तू विवेकपूर्ण उपदेश को क्यों नहीं मानता है ? मोहरूपी शराब को पीकर तू अपने आपको भूल गया, अचेत हो गया है।
तू मिथ्यात्वी होकर, मिथ्या आचरण कर इनमें रत हो रहा है और अपने ज्ञानस्वरूप को न जानकर/उसका आस्वादन न कर तू पर-परिणति में सना हुआ है, डूब रहा है, चिपक रहा है।
तू इस संसार की असारता को क्यों नहीं देखता जहाँ राजा भी भरकर अपने खराब भावों के कारण विष्ठा में कीड़ा होकर जन्मा। जहाँ धनी भी निर्धन हो जाता है, राजा दास हो जाता है, अपने पराए/शत्र हो जाते हैं और दु:खी प्राणी भी हर्षित हो जाते हैं।
यह देह रोगों का घर है। तू इसमें नेह/अपनापन जोड रहा है । यह सब विपत्ति की निशानी है, कष्टप्रद है । यह पुद्गल देह मल से सना है, क्षण-क्षण में नष्ट
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दौलत भजन सौरभ